Monday 12 October 2015

स्मृतियों के स्वर्णिम दिन


‘स्मृतियों के स्वर्णिम दिन’ सुशील राकेश की वह साहित्यिक यात्रा है जिसमें उन्होंने साहित्य व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया, प्रेरणा, प्रोत्साहन, साहित्यिक सृजनशीलता, साहित्यिक प्रतिबद्धता और अपनी पक्षधरता को पाठकों के सामने बहुत ही सरल, सहज और स्वतंत्र लेखन के साथ प्रस्तुत किया है.
साहित्य और राजनीति में एकता और संघर्ष बहुत पुराना है. ‘न भूतो न भविष्यति’ के आलेख में निराला और राजनीतिज्ञ लोगों के मध्य मतभेद हो जाते हैं जिसे सुशील राकेश रहस्योद्घाटित करते हैं कि “जब राजर्षि अपने उद्घाटन भाषण में लेखकों को सुझाव दे रहे थे तो इस पर निराला जी ने खड़े होकर कहा कि क्या राजनीतिज्ञ अब हम साहित्यकारों को बतलायेंगे कि हम किस प्रकार का साहित्य रचें.”

यह वही विवाद है कि जिसपर प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल होनी चाहिए. वैसे तो यह संस्मरण इसलिए भी महत्वपूर्ण बन जाता है कि क्योंकि 50-60 के दशक में हिन्दी-उर्दू भाषा को लेकर जो बहस थी उसके राजनीतिक निहितार्थ को आसानी से समझा जा सकता है.
यकीनन यह एक ऐतिहासिक, साहित्यिक दस्तावेज़ है जिसमें सिर्फ स्मृतियाँ ही नहीं तथ्यात्मक वह समयकाल भी है जिसमें साहित्यिक गतिविधियों में होने वाली राजनीतिक हस्तक्षेप को आज के साहित्यिक आयोजनों, पुरस्कारों, सम्मेलनों के संदर्भों की दशा-दिशा को उस दौर की रोशनी में समझने का मौका मिल सकता है.
‘कोमल क्षणों में ‘प.सुमित्रानंदन पन्त’ आलेख में सुशील राकेश ने उन दिनों की याद को ताजा कर दिया जब साहित्य, समाज और साहित्कारों के योगदानों को संकलित करने और उन्हें प्रकाशित करने का बेड़ा उठाया था. उन्होंने पन्त जी के सान्निध्य में रहकर उन अनुभूतियों को उजागर किया जिससे सुशील राकेश का सृजनात्मक व्यक्तित्व उभरकर सामने आता है- “वह विशाल से विशालत्तर व्यक्तित्व वाला हिमाद्री का शिष्य मेरे शैशवकाल से मुग्धता, ममता और तन्मयता में सर्वप्रथम हर्षोल्फुल्ल होकर आया है, वह आज भी उसी तरह आकर्षण बनकर पुष्पों की गंध की तरह महक रहा है.”
प. इलाचंद जोशी को याद करते हुए सुशील राकेश ने उनके ऐसे अनसुलझे पहलुओं को उजागर किया है जिससे किसी लेखक का निर्माण, विकास-प्रक्रिया एवं दृष्टिकोण का निर्माण होता है. साहित्यिक चेतना का निर्माण और व्यक्तित्व का निर्माण दोनों एक साथ चलने वाली प्रक्रिया है. एक साक्षात्कार के माध्यम से प. इलाचंद जोशी बताते हैं कि मुझ पर किस लेखक की रचनाओं का प्रभाव पड़ा है? “देखिए ! मुझ पर प्रभाव उन सभी लेखकों का प्रभाव पड़ा है जिनका मैंने प्रेमपूर्वक अध्ययन किया है. जिन विश्व के महानत्तम साहित्यकारों की रचनाओं का प्रेमपूर्वक अध्ययन किया है. उनकी संख्या काफी है. इस काफी संख्या के अंतर्गत मेरे उन अतिप्रिय रचनाकारों की संख्या भी काफी से कुछ ही कम होगी तो आप ही बताइये कि यह मैं कैसे बताऊं कि मुझ पर किस एक रचनाकार का प्रभाव पड़ा है.” उपरोक्त कथन यह साबित करने के लिए काफी है कि बड़े रचनाकार का मतलब प. इलाचंद जोशी होता है जिन्होंने अपनी व्यक्तिगत चेतना को सामूहिक चेतना से प्रभावित पाया.
यह संस्मरण एक नये प्रकार की कथा शिल्प का निर्माण करने में सफल रहा है. ‘महादेवी का पर्व स्नान’ पढ़ते हुए ऐसा महसूस होता है कि महादेवी वर्मा स्वयं उपस्थित होकर पाठक से सीधे संवाद करती हैं. सुशील कहते हैं कि जब-जब वो मेरी स्मृतियों में आती हैं तो कोई न कोई रचना रचते हुए वो उत्फुल्ल मुद्रा में नया सन्देश देकर सबको प्रेरित करती हैं, कितना उज्ज्वल है उनका व्यक्तित्व, इसका वर्णन करना मेरी लेखनी के लिए असम्भव सा प्रतीत होता है-
बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले ?
पथ की बाधा बनेगें तितलियों के पर रंगीले ?
विश्व का क्रन्दन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस गीले !
तू न अपनी छांह को अपने लिए कारा बनाना !
जाग तुझको दूर जाना!
सुशील राकेश के समयकाल की यात्रा के सहयात्री शमशेर भी रहे. शमशेर के बारे में लिखते हुए लेखक कहता है कि 1936 में प्रगतिशील संगठन के साथ उनके जुड़ाव ने उनके विचारों को एक नई धारा की ओर मोड़ दिया. कविता के बारे में शमशेर द्वारा प्रस्तुत विचारों को भी लेखक ने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है. “हम किसी कविता का वास्तविक आदर तब करते हैं जब उसकी अच्छाई-बुराई दोनों तटस्थ भाव से वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखें.”
डॉ. धर्मवीर भारती और सुशील राकेश का परिचय मात्र इतना है कि दोनों ने एक दूसरे को मात्र चिट्ठी पत्री लिखी. इस पत्राचार ने लेखक के विचारों को काफी हद तक प्रभावित किया. इसलिए लेखक को कहना पड़ा कि “मैं आज भी नहीं समझ पा रहा हूँ कि जो वाणी और व्यवहार में भारती जी का साम्य था, प्रोत्साहन करने की कला थी, वो मुझे किसी सम्पादक में क्यों नही दिखाई दे रही है.”
सुशील राकेश की साहित्यिक यात्रा यहीं समाप्त नहीं होती. वे अमरनाथ गुफा से होते हुए निसार, मजहर, अब्दुल गनी खां साहब से होते हुए सम्राट जयन्द्र हर्षवर्धन तक की इतिहास लेखन की यात्रा करते हैं. ‘सृजन के द्वार पर’ की कवयित्री डॉ. साधना शुक्ल की समीक्षा करके उनके दृष्टिकोण और उनकी मौलिकता को साहित्य जगत में परिचय कराने का कार्य लेखक ने किया है.
इस संस्मरण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा साक्षात्कार भी है जिसने इस संस्मरण को दुर्लभ और ऐतिहासिक बना दिया है. नरेश मेहता युवा पीढ़ी के सृजनशील रचनाकारों के भविष्य के सवाल का जवाब देते हुए कहते हैं कि “अनिवार्यता मानता हूँ कि जीवन है, मनुष्य है तो अनिवार्यता सृजन भी होगा. न तो जीवन पर शक है, न मनुष्य की क्षमताओं पर शक है. आज हमसे भिन्न लेखक हैं, भिन्न होना भी चाहिए... निश्चित ही नई पीढ़ी अपनी तरह से नया लेखन करेगी... मैं यह भी कह सकता हूँ कि वह मुझसे अच्छा लिख सकते हैं...”
लेखक द्वारा डॉ. कृष्ण कान्त दूबे से हुई बातचीत में उल्लेख मिलता है कि ‘कविता इन्कलाब है’. इसीलिए लेखक भी नये साहित्यकारों के बारे में अपने विचार रखते हैं कि “युवा साहित्यकारों के साहित्य में नवीन चिन्तन और देश व समाज की समस्याओं से जूझने  का जज्बा मिलता है.”
इस संस्करण को ऐतिहासिक साहित्यिक धरोहर के रूप में अवश्य पढ़ा जाना चाहिए. संस्मरण के माध्यम से आजादी के बाद साहित्य और खासकर उत्तर प्रदेश के हिन्दी साहित्य के उद्भव और विकास की संरचना को भी पाठक वर्ग सरलता से समझ सकते हैं.” लेखक का योगदान साहित्य समाज के लिए अनुपम और अतुलनीय है जिसे युग-युग तक याद रखा जायेगा. यह संस्मरण एक साहित्यिक दस्तावेज़ भी बन गया है जिसका अध्ययन नव रचनाकार की यह उम्मीद जगाए रखता है कि दुनिया विकल्पहीन नहीं है.

समीक्षक : एम.एम. चन्द्रा 
स्मृतियों के स्वर्णिम दिन : सुशील राकेश | आशीष प्रकाशन | कीमत 500 | पेज 288



1 comment:

  1. sateek shabdon me aapne pustak kee sameeksha prastut kee hai .aabhar

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