Wednesday 30 September 2015

शहरी जीवन की मनोदशा का वर्णन : सपना

डॉ. लवलेश दत्त की कहानी संग्रह की समीक्षा लिखना बहुत ही श्रमसाध्य रहा. वैसे तो इस कहानी संग्रह को दो अन्य साथियों ने भी पढ़ा और अपनी राय जाहिर की लेकिन उनका नजरिया इस पुस्तक को लेकर काफी भिन्न था. इस संग्रह में कुल पन्द्रह कहानियाँ हैं जिन्हें बिना किसी भूमिका के प्रकाशित किया गया है. शायद नये लेखकों के सामने आने वाली कठिनाईयों को आप सभी सुधी लेखक एवं पाठक आसानी से समझ सकेंगे.


यह कहानी संग्रह संवाद शैली में लिखा गया अपने आप में अनोखा संकलन है जिसके माध्यम से कहानी सरपट दौड़ती है और अंत तक पाठक को बांधे रखती है. ‘सपना’ कहानी स्त्री होने के अपने दर्द को पाठक के सामने एक सवाल के रूप में प्रस्तुत करती है-“क्यों लोग उसकी भावनाओं को समझ नहीं पाते? वह तो दोस्ती करती है और लोग उसकी दोस्ती को क्या समझ बैठते हैं? बार-बार उसे यही लगता है कि क्या मेरा लड़की होना गलत है?” यह कहानी एकतरफा प्रेम की दुखांत कहानी है. आपको ऐसी ही कहानी ‘पत्थर के लोग’ पढ़ने को मिलेगी जिसमे एकतरफा प्यार और पागलपन है. प्यार में असफल होने के बाद भी वह समाज की सेवा करने में अपना जीवन समर्पित करने की सोचता है लेकिन उसके नेक इरादे, आज की दुनिया में उसको मुजरिम बना देती है. शायद ऐसी कानून व्यवस्था हमारे समाज में आज भी मौजूद है.

‘जरूरतें’ एक आम इन्सान की ऐसी कहानी है जो बॉस और उसके सहकर्मी के मध्य होने वाले तमाम तरह के समझौतेविहीन सम्मान को बचाय रखने की जद्दोजहद की दास्ताँ है– “जो भी नया बॉस आता है वह अपने अनुसार काम कराता है. रही बात नौकरी न करने की तो यह गलत है यार...तुम्हारा घर परिवार है...बच्चो का खर्च... अगर नौकरी छोड़ दी तो क्या करोगे?” आज शहरी जीवन बहुत ही कठिन हो गया है. अपने अस्तित्व को बचाय रखने के लिए एक आम इन्सान रात-दिन खटता है लेकिन वह अपने परिवार की परवरिश तक नहीं कर सकता- “अब तो घर का खर्च चलाना भी मुश्किल हो रहा है. दो-तीन महीने से तो विवेक को वेतन में से कुछ धनराशि अग्रिम लेनी पड़ती है.” यह कहानी प्रत्येक मध्यम, निम्न मध्यम और निम्न वर्ग के लोगों की अपनी कहानी लगती है.

‘अँधेरा’ जैसी कहानी ने यह साबित कर दिया है कि महिलाएं आज कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं. खासकर पारिवारिक रिश्तों में महिलाओं का शोषण और उत्पीड़न इसलिए भी अधिक पाया जाता है क्योंकि मान-मर्यादा की वजह से लड़की पक्ष कुछ नहीं बोल पाता नतीजन महिलाओं को  विभिन्न तरह के शोषण का शिकार होना पड़ता है.

‘आइसक्रीम’ शहरी जीवन की वह महा-गाथा है जिसे कहीं भी सुना, पढ़ा और लिखा नहीं जाता है. डॉ. लवलेश ने शहर के नरकीय जीवन के ऐसे पहलू को उजागर किया है जिस पर हमारी नजर सिर्फ कभी-कभार ही पड़ती है- “आजकल तो ऐसी-ऐसी कालोनियाँ बन रही हैं जिसमें शोपिंगमॉल, सिनेमाघर, दुकानें, स्विमिंगपूल और न जाने क्या-क्या होता है. लेकिन धूप और वर्षा से बचने का कोई स्थान नहीं.”

आधुनिक तकनीक ने जहाँ दुनिया की दूरियों को कम किया है वहीं पारिवारिक रिश्तों को तोड़ने में भी अहम भूमिका निभाई है. ‘मैसेज’ नव दम्पत्ति की ऐसी कहानी है जिसमें एक मैसेज लड़की के चाल-चलन पर सवाल खड़ा करके रिश्तों में कड़वाहट पैदा करता है. यह कहानी पढ़े-लिखे सभ्य समाज में पैदा होने वाली ख़ास एवं नये तरीके की ऐसी बीमारी है जो शहरी जीवन के परिवारों में अविश्वास, इर्ष्या, द्वेष आदि मनोविकृति के रूप में हमारे सामने आ रही  है.
  
‘पराँठे’ और ‘रोंग नम्बर’ हमारे दौर की वो कहानियाँ हैं जिसमे भागदौड़ भरी जिन्दगी माँ-बाप के लिए बहुत ही दुखदायी होती है. ‘पराँठे’ कहानी के शर्मा जी मौत शहरी जीवन के पारिवारिक संबंधों में आ रही गिरावट की वह सडन है जिसकी बदबू धीरे-धीरे हमारे घरों तक पहुँच रही है. वहीं ‘रोंग नम्बर’ शहरों की उन परिवारों की कहानी है जो अपने परिवार, गाँव समाज से एकदम कट चुके हैं. “अरे अंकल आप किस चक्कर में पड़े हैं? यह दिल्ली है. आपका बेटा-बहू कोई आपको लेने आने वाला नहीं है. आप दोनों मेरी सलाह मानो... घर वापस चले जाओ. यह दिल्ली जितनी बड़ी है, यहाँ के लोगों के दिल  उतने ही छोटे हैं.”

शहर सिर्फ अमीरों, मध्यवर्गीय परिवारों का नहीं होता. उसमें गरीब परिवार और उनका जीवन भी होता है. ‘भाजी’ कहानी को पढ़ने के बाद आपको देखने को मिलेगा कि गरीब, गरीब जरूर होते हैं लेकिन जिन्दा रहने की जद्दोजहद में ही सही, छोटे-छोटे सपनों के साथ वे आज भी जिन्दा और जीवंत हैं- “अँधेरा घिर रहा था. पैरों की चोट दर्द कर रही थी पर ख़ुशी इतनी थी कि किसी दर्द, किसी अँधेरे की परवाह किये बगैर मन में बुदबुदाता हुआ बालक राम साइकिल दौड़ाए जा रहा था. आज गुड्डो रानी खुश हो जाएगी. एक नहीं दो-दो फिराक, पैसे का क्या है, कल नहीं तो परसों काम मिल ही जायेगा. फिर चार-पांच दिन तो यह तेल-मसाला चल ही जायेगा...”


डॉ. लवलेश दत्त की कहानियाँ शहरी जीवन की उस मनोदशा का वर्णन करती हैं जिसमें लोभ-लालच, अलगाव, घुटन, बेगानापन आदि मनोवृतियों का यथार्थ चित्रण है. एक-दो कहानियों का कथा शिल्प एक जैसा होने कारण कहानियों में दोहराव सा महसूस होता है. इसके बावजूद  कहानियों की बनावट, बुनावट और कथा शैली में एक नयापन है जो पाठक को शुरू से लेकर अंत तक बांधे बनाये रखने में सफल होती है.

समीक्षक - एम.एम.चन्द्रा 

सपना : डॉ. लवलेश दत्त | प्रकाशक : अंजुमन प्रकाशन | कीमत :120 | पृष्ठ 112 



Saturday 26 September 2015

इश्क तुम्हें हो जायेगा : समीक्षक - वंदना गुप्ता


प्यार इश्क मोहब्बत आदिम की मूलभूत चाहना जिसके इर्द गिर्द है संसार की संरचना .एक आदिम प्यास , एक खोज , एक घटना , एक पीड़ा , एक दर्द , एक दुर्घटना जाने कितने नाम मिले मगर अंततः शरीर भूगोल से परे इसके तंतु तो सिर्फ रूह में मिले जो जाने कैसे बटे गए थे जितने खोले उतने उलझते गए फिर कौन कर सकता है व्यक्त निराकार को .....निराकार ही तो होता है प्रेम जो दो मानवों में आकार ले खुद को साकार करना चाहता है बस शुरू हो जाती है वहीँ से एक भटकन ........एक अंतहीन शुरुआत की ....... प्रेम चाहना है या उपासना या प्रताड़ना या आलोचना इन सन्दर्भों में कौन पड़े .......प्रेम में प्रेम होना ही शायद है उसकी सबसे बड़ी परिभाषा और फिर जब एक स्त्री प्रेम में होती है तो कैसे अपने भावों की गर्जना को संगृहीत करती है उसी संग्रहण का नाम है : इश्क तुम्हें हो जायेगा .

हिन्द युग्म प्रकाशन से प्रकाशित अनुलता राज नायर का कविता संग्रह अपने शीर्षक से ही सबसे पहले आकर्षित करता है और अन्दर जाओ तो प्रेम का अथाह सागर उमड़ा पड़ा है जिसका दिग्दर्शन पहली कविता ही कराती है :
‘ रूह ‘ जहाँ प्रेम का चरम है तो कवयित्री की सोच की महीनता भी जो बताती है इश्क का चरम तो रूह में तब्दील होने के बाद ही आकार लेता है जहाँ मानव मन तो पहुँच ही नहीं सकता वहां तो वो ही पहुँच सकता है जो नख से शिख तक प्रेम में डूबा हो . छोटी सी कविता में पूरा प्रेम शास्त्र मानो समा गया हो .



इसीलिए तो खाई जाती हैं कसमें
अपने अपने झूठ पर
सच की मोहर लगाने को
‘ कसम ‘ खाने का इससे बेहतर अर्थ कोई क्या देगा भला गागर में सागर भरती कविता गहन अर्थ संजोये है .

जीवन खेल ही स्मृतियों का है , उम्र का कोई भी दौर हो कोई भी मोड़ हो नहीं छोड़तीं स्मृतियाँ पीछा तभी तो ‘ स्मृतियाँ ‘ कविता के माध्यम से कवयित्री ने जब अपनी स्मृति का पिटारा खोला तो स्वाद की कडवाहट उतर ही आई

मुझे स्मरण है अब भी तेरी हर बात
तेरा प्रेम , तेरी हंसी , तेरी ठिठोली
और जामुन के बहाने से
खिलाई थी तूने जो निम्बोली
अब तक जुबान पर
जस का तस रखा है वो कड़वा स्वाद
अतीत की स्मृतियों का

‘ राग विराग ‘ कविता अतीत और वर्तमान में भ्रमण करती एक बार फिर प्रेम की आवश्यकता को स्थापित करती है

ऐसा नहीं कि प्रेम के अभाव में जीवन नहीं
मगर
बड़ा त्रासद है
प्रेम का होना और फिर न होना


उसकी आँखों को चूमे बिना ही
चखा है मैंने
कोरों पर जमे नमक को
एक रात नींद में वो मुस्कुराई
और बादल उसके इश्क में दीवाना हो गया

इसे इश्क की इन्तेहा न कहा जाए तो भला क्या कहा जाए , एक भीना भीना मीठा मीठा अहसास संजोये है कविता ‘ दुआ ‘ जिसका स्वाद , जिसकी कसक धीमा धीमा अन्दर ही अन्दर कसकती है .

‘ मेरे कमरे का मौसम ‘ एक बार फिर प्रेम का लबालब भरा प्याला ही तो है जहाँ प्रेमी , प्रेम और खुद के सिवा कुछ दिखे ही न , कुछ महसूसे ही न , जहाँ के रोम रोम में बस ठाठें मारता प्रेम का सागर हो वहां कैसे अन्य अनुभूतियों के लिए जगह हो सकती है भला
सारे मौसम एक साथ होते हैं जब
सब खिड़कियाँ बंद होती हैं और
मेरे कमरे में
तुम होते हो

अहा!
तुम , मैं और तुम्हारा बारामासी प्रेम !
यही तो एक स्त्री की चाहत की पराकाष्ठा है जिसे प्रेम भी चाहिए तो बारहमासी , पूर्ण रूप से , कोई मोल तोल नहीं क्योंकि न वो खुद अपूर्ण है और न ही जीवन में अपूर्णता चाहती है तभी तो ऐसे उदगार जन्म लेते हैं .

‘ प्रेम में होने का अर्थ ‘ कितने गहरे और सच्चे अर्थ समेटे है ये तो कोई उसमे उतरने वाला ही जान सकता है . गहन अर्थों को समेटे कविता प्रेम के अर्थ के साथ प्रेम का विसर्जन भी कर दे तो होगी न प्रेम के अर्थों में कहीं कोई ऐसी गहनता जहाँ प्रेम अपने होने के साथ न होने के विकल्प को भी समाये होता है :
मैं प्रेम में हूँ
इसका सीधा अर्थ है
मैं नहीं हूँ
कहीं और

आह ! क्या व्याख्या है , क्या परिभाषा है और यूं ही नहीं लिखा जा सकता ये सब जब तक प्रेम न किया हो किसी ने , जब तक उस राह पर न चला हो कोई क्योंकि अंत में जो कहा वो बिना अनुभव बिना अनुभूतियों के संभव ही नहीं :

मैं प्रेम में हूँ
इसके कई अर्थ हैं
और सभी निरर्थक

स्वीकार्यता और अस्वीकार्यता दोनों भावों का समावेश चंद शब्दों में संजोना मानो कवयित्री खुद स्वीकार रही हो दोनों ही परिस्थितियाँ , प्रेम के होने और न होने से परे उसके अर्थों को कर रही हो परिभाषित .

‘ प्रेम का गणित ‘ सच कितना गहन है ये तो सिर्फ कवयित्री ही बता सकती है जब कहती हैं :
यदि प्रेम एक संख्या है
तो निश्चित ही
विषम संख्या होगी
इसे बांटा नहीं जा सकता कभी
दो बराबर हिस्सों में

कहने को कुछ बचता ही नहीं सिर्फ कथ्य में ही डूबे रहो और गुनते रहो .

‘ प्रेम की प्रकृति ‘ सच ऐसी ही तो होती है जैसा कि कवयित्री ने चंद शब्दों में ही बयां कर दी और पाठक मंत्रमुग्ध रह गया :
प्रेम का एक पल
छिपा लेता है अपने पीछे
दर्द के कई कई बरस

कुछ लम्हों की उम्र ज्यादा होती है , बरसों से

जहाँ एक टीस है , एक कसक है , एक अकुलाहट है और एक समर्पण भी .छोटी छोटी रचनायें गहन अर्थ समेटे अपनी फुहारों में पाठक मन को भिगो देती हैं . सच यही तो है प्रेम का अर्थशास्त्र .


उस रोज
जब सीना चीरकर
तुम दे रहे थे
सबूत अपनी मोहब्बत का
तब चुपके से वहां
मैंने अपना एक ख्वाब
छिपा दिया था

जो हलचल है तेरे दिल में उसे
धड़कन न समझना
मानो यूं ‘ धड़कन ‘ को सही अर्थ दे दिया हो कवयित्री ने . जैसे सरोजिनी प्रीतम की कवितायें गागर में सागर भरती हैं फिर वो हास्य में कही गयीं हो वैसे ही अनुलता की कवितायेँ पढ़ते हुए  लगता है .


मैंने कुछ सकुचा के पुछा
सुखद से सुखद स्वप्न भी मुफ्त ?
उसने जवाब दिया
हाँ , हर स्वप्न मुफ्त
क्यूंकि किसी के भी
पूरा होने का कोई बंधन नहीं
कोई शर्त नहीं
फिर उनका क्या मोल
जो चाहे देखो
‘ सपनो का सौदागर ‘ कविता में मानो जीवन का शाश्वत सत्य उतार दिया हो .

‘ सिन्दूर ‘ कविता नारी मन , नारी जीवन का वो सत्य है जिसे हर स्त्री युगों से परिभाषित कर रही है अपनी अपनी तरह और आज तक पुरुष उसे पकड़ नहीं पाया क्योंकि वो उसकी तह तक कभी गया ही नहीं , जाना ही नहीं उसके त्याग और समर्पण को तो क्या समझेगा वो उसके प्रेम की परिभाषा को .....ये कविता तो मानो गूंगे का गुड है जिसके स्वाद की चाशनी में पाठक डूब जाता है जब कवयित्री हर चिन्ह की स्वीकार्यता को अपना प्रेम बताती है न कि थोपा हुआ आडम्बर और कह देती है अंत में उसे अपने जूनून का उन्मुक्त प्रदर्शन ..आह ! शायद तभी कवयित्री का  ‘प्रेम की कोई तय परिभाषा नहीं होती ‘ कहना सार्थक हो जाता है .


सो , अब तय कर दी है उसने
अपनी आकांक्षाओं की सीमा
और बाँध दी हैं हदें
ख्वाबों की पतंग भी कच्ची और छोटी डोर से बाँधी

ऐसा कर देना आसान था बहुत
सीमाओं पर कंटीली बाद बिछाने में
समाज के हर आदमी ने मदद की
ख्वाबों की पतंग थमने भी बहुत आये

औरत को अपना आकाश सिकोड़ने की बहुत शाबाशी मिली
‘ औरत की आकांक्षा ‘ को कब कोई समाज स्वीकार पाया है ? कैसे वो उन्मुक्त आचरण कर सकती है ? कैसे वो कोई ख्वाब देख कर उसे फलीभूत कर सकती है ? पहरे तो बिठाए ही जायेंगे उसके साथ कोशिश की जाती है उसे इतना बेबस करने की कि एक दिन जब उनके अनुसार आचरण करने लगे तो हो जाती है शाबाशी की हकदार या कहो एक सुगढ़ गृहणी , एक अच्छी स्त्री . खुद को नेस्तनाबूद कर जब ज़मींदोज़ किया तभी औरत को खुद को अच्छा दिखने का खिताब मिला .


प्रेम जब अनंत हो गया रोम रोम संत हो गया सच कहा किसी ने लेकिन जब प्रेम में नाकामी मिले तो ? यही है इश्क की वो सर्पीली चाल जिसके बारे में कहा गया है पता ही नहीं चलता कब कौन सा मोड़ ले ले और ऐसा ही तो ‘ नाकाम इश्क ‘ कविता का मनोविज्ञान है जिसमे कवयित्री नहीं सहेजना चाहती नाकाम इश्क की निशानियाँ भी और ढलका देती हैं समंदर के खारे नमक को आंसुओं के रूप में . प्रेम की ऊर्ध्गामी गति जहाँ प्रेमिका अस्वीकारती है हर वो जहाँ उसका अस्तित्व ही मिट जाए , उसका होना ही स्वीकार्य न हो वहां इश्क नाकाम ही हुआ करते हैं :

नामंजूर था मुझे खुद को खो देना
नामंजूर था मुझे तेरा नमक

‘ तारों की घर वापसी ‘ एक खूबसूरत बिम्ब का प्रयोग . प्रेम में तकरार को तारों चाँद और आसमान के माध्यम से बहुत खूबसूरती से संजोया है जो एक बार फिर प्रेम के एक और अलग रूप का प्रतिपादन करता है .....बिलकुल प्यार में तकरार भी होती है और तकरार इंसान ही नहीं करते बल्कि चाँद तारों में भी हुआ करती है .

‘ महामुक्ति ‘ ईश्वरीय तत्व , उस चेतन के प्रति समर्पण का भाव है जहाँ आत्मा और परमात्मा का मिलन हो जाए और द्वैत का भाव मिट जाए उस परम आनंद में समां जाने को आतुर है कवयित्री की चेतना जो हर कवि  या कवयित्री उसकी मूलभूत चाहत होती है और उसी खोज का परिणाम होता है लेखन और फिर कवयित्री में कृष्ण प्रेम स्वतः जागृत है तो ऐसी अनुभूतियों का जागृत होना स्वाभाविक है .

‘ रूपांतरण ‘ स्त्री का आंतरिक और बाह्य सौन्दर्य का प्रतिरूप है . कैसे एक स्त्री में अनेक स्त्रियाँ मिला करती हैं , कैसे अपने अन्दर संजोये होती है वो एक बच्चा भी तो एक सबल पुरुष भी . यानि स्त्री वक्त पड़ने पर बन सकती है बच्चा और कर सकती है बाल सुलभ चेष्टाएं भी तो वहीँ किसी आकस्मिक स्थिति में बन सकती है पुरुष से भी ज्यादा सबल क्योंकि यही है उसकी प्रकृति , आखिर जननी है वो जानती है हर माहौल में जरूरत के अनुसार खुद को उस प्रकृति में रूपांतरित करना और यही फर्क है एक स्त्री होने में बनिस्पद पुरुष होने के .

‘ पापा ये आपके लिए ‘ में कवयित्री ने अपने उन मनोभावों को पिरोया है जिससे अक्सर सभी गुजरते हैं . एक वक्त होता है जब पिता की ऊंगली पकड़ बच्चा चलना सीखता है और एक उम्र पर उसी पिता को अपने बच्चे की ऊंगली की जरूरत पड़ती है या फिर कब क्या खाना पीना है उसका ध्यान रखना या चोट लगने पर दर्द का अहसास होना वो सब एक बेटी को भी उसी तरह होता है जैसा उसके पिता को होता है और बदल जाते हैं पात्रों के रूप वक्त के साथ . बचपन में जैसे बच्चों को पिता की जरूरत होती है वैसे ही बुढापे में उन्हें बच्चों की , एक खूबसूरत सन्देश देती हुई मार्मिक कविता मन भिगो देती है .

‘ प्रेम कविता ‘ प्रेमियों की वास्तविक स्थिति का चित्रण है . सच है ये जो प्रेम करते हैं उन्हें जरूरत नहीं कविता के माध्यम से व्यक्त करना और जो जानते भी नहीं प्रेम करना वो ही अक्सर कागज़ काले किया करते हैं क्योंकि ख्याली आकाश इतना विस्तृत होता है उसमे ही जीना उन्हें सुगम लगता है जबकि हकीकत में जरूरत नहीं होती असल प्रेमियों को किसी भी उपालंभ की क्योंकि प्रेम की प्रकृति ही यही है कि जब दो दिल मिल रहे होते हैं , जब प्रेम , प्रेमी और प्रेमास्पद का मिलन होता है तब
प्रेमी नहीं करते बातें
ऐसी वैसी
कैसी भी

वे नहीं करते प्रेम से इतर
कुछ भी .........

यही तो प्रेम का वास्तविक सत्य है . जहाँ प्रेम होगा वहां बस प्रेम का ही साम्राज्य होगा तो फिर कैसे ढूंढ सकते हैं हम उसमे अन्य चाहतें , इच्छाएं या आकांक्षाएं , यही तो स्थिति है प्रेम में प्रेम होने की क्योंकि वो समय तो सिर्फ एक दूजे में खो जाने का होता है राधा कृष्ण सा .

पूरा संग्रह प्रेम के आख्यानों का दस्तावेज है .हर कविता में एक धमक है ,एक रुनझुन है , एक छमछम है .  एक मंद मंद बहती नदी बहा ले जाती है अपने साथ अपने प्रेम के प्रवाह में . छोटी छोटी सीधे सरल शब्दों में व्यक्त की गयी प्रेम की अनुभूतियाँ हैं जिन्हें कवयित्री ने कलमबद्ध किया और पाठकों के लिए प्रस्तुत किया तो पाठक भी उस प्रवाह में बहने से खुद को रोक न सका . मंत्रमुग्ध सा कवयित्री की ऊंगली पकडे चलता चला गया और फिर खुद को कहने से रोक न सका सच कहती है कवयित्री : ‘ इश्क तुम्हें हो जायेगा ‘ . सच संग्रह से इश्क हुए बिना एक सच्चा पाठक तो रह ही नहीं सकता क्योंकि कहीं न कहीं हर जगह उसके दिल के जज्बातों को ही तो कवयित्री ने पिरोया है .
अनुलता राज नायर का पहला कविता संग्रह पहले प्रेम की तरह है जिसमे कोंपले फूटी हैं और वो अपनी कच्ची सी , भीनी सी सुगंध से पाठक के मन मस्तिष्क पर अपना एकाधिकार जमाने को आतुर हो . कवयित्री को बधाई देते हुए उनके उज्जवल भविष्य की कामना करती हूँ .





बदलती सोच के नये अर्थ :समीक्षक - राकेश कुमार


वन्दना गुप्ता का प्रथम काव्य संग्रह बदलती सोच के नये अर्थ हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा चयनित एक युवा कवियित्री का ऐसा संग्रहणीय लिखित दस्तावेज है जिसमें प्रेम के साथ विरह भी है, दर्शन भी है, एक स्त्री का सुंदर चारित्रिक चित्रण भी है, तमाम वर्जनाओं के प्रति मुखरता है और समाज के बदलते प्रतिमानों के प्रति एक प्रकार का विद्रोह भी है। यद्यपि पाठकों के पठन की सहजता की दृष्टि से कवियित्री ने इसे चार विभिन्न खण्डों में विभक्त करने की चेष्टा की है तथापि प्रत्येक खण्ड एक दूसरे से स्वयं को संबद्ध करती, प्रश्न-प्रतिप्रश्न के बीच उलझनों का स्वयं निवारण करती, प्रेम और दैहिक सम्मिलन जैसे जटिल विषयों में दर्शन का समावेश करती प्रत्येक पंक्तियां सात्विकता की कल्पना रूपी घृत में पवित्र लौ की भांति प्रज्जवलित प्रतीत होती है। 

अपनी कविता संग्रह का आरंभ उन्होने प्रेम रचनादेखो आज मुहब्बत के हरकारे ने आवाज दी है“, से की है। आज के युग में संचार माध्यमों के द्वारा आपस में दूरस्थ दो अन्जान व्यक्तियों के मध्य प्रेम के बीज का स्वआरोपण एवं अंकुरण तथा पल्लवन को कविता में श्रृंगार के माध्यम से उकेरने की चेष्टा के बीच पाठक के हृदय चक्षु में विरह अश्रु का अनायास आयातित होना, उनके लेखन कौशल का प्रमाण प्रस्तुत करता है। यद्यपि उन्होने रचना के आरंभ को श्रृंगार से प्रारंभ करने का प्रयास किया है, किंतु मध्य में ही उन्होने विरह की कल्पनाओं से पाठकों को द्रवित करने की चेष्टा की हैं। शायद कवियित्री यह भलीभांति जानती हैं कि मिलन तो प्रेम का सतही एवं मलिन स्वरूप होता है, वास्तव में विरह उसे सुंदरता प्रदान करता है। 

अपनी दूसरी कविता तुम तो मेरी प्रकृति का लिखित हस्ताक्षर हो में वे द्वापर युग की श्रीकृष्ण की परिकल्पना को शब्दों में उकेरती प्रतीत होती हैं। नायक के उन श्रृंगारिक अनुभूतियों को जिसमें वह नायिका को स्वयं की प्रतिकृति के रूप में महसूस करने लगता है, कदाचित् अकल्पनीय किंतु प्रेम की पराकाष्ठा को प्रतिबिंबित करता है। यह प्रेम के चरमोत्कर्ष की अवस्था है, जब मैं और तुम का भेद नायक और नायिका के मध्य सदा के लिये समाप्त हो जाता है। राधाजी, श्रीकृष्ण से यही प्रश्न करती हैं, वे कहती हैं किकान्हा तुमने मुझसे अपार प्रेम किया किंतु विवाह रूक्मणी से, यह कदाचित् उचित नही“, तब श्रीकृष्ण प्रेम की पराकाष्ठा को परिभाषित करते हुये कहते हैं किराधा विवाह तो उनके बीच किया जाता है जिनके मध्य तुम और मैं का भेद विद्यमान हो। किंतु जब प्रेम अपने उच्चतम उत्कर्ष को प्राप्त कर लेता है, तब तुम और मैं का भेद भला कहाँ रह जाता है, मैं तो तुममे और स्वयं में कोई भेद ही नहीं कर पाता हूँ और क्या यह संभव है कि मैं स्वयं से विवाह कर लूँ

अपनी अगली कविताओं में भी कवियित्री ने प्रेम के सात्विकता पर बल देने की चेष्टा की है, प्रेम दैहिक आकर्षण से परे आत्मिक अनुभूति का विषय है, यह कवियित्री ने बार-बार रेखांकित करने की चेष्टा की है। आज के युग में जब प्रेम पूरी तरह स्वार्थपरक और शारीरिक आकर्षण से इतर कुछ भी नहीं रह गया है, ऐसे में इस तरह की अलहदा विचार को जिंदा रख शब्दों में उकेर पाठकों तक परोसना, कवियित्री के उज्जवल दृढ़ सोंच को प्रतिबिंबित करता है। कवियित्री अपनी कविता प्रेम का अंतिम लक्ष्य क्या...? में अपनी कविता के माध्यम से पाठकों को वैचारिक द्वंद में धकेल देती हैं। प्रेम की संपूर्णता दैहिक समर्पण में है अथवा आत्मिक मिलन में ? क्या प्रेम बिना दैहिक अनुभूति के अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त नहीं कर सकता ? दो देह का मिलन प्रेम की पराकाष्ठा को परिलक्षित करता है अथवा प्रेम के निरंतर हवस की ओर अग्रसर होने वाले एक चरम बिंदु को चिन्हित करता है

इन सभी विचारों के द्वंद में पाठक स्वयं को जैसे ही उलझा हुआ महसूस करता है वहीं इसके पश्चात की कवितायें इन प्रश्नों के उत्तर ढूढ़ने में स्वयं मददगार साबित होती हैं। अपनी कविताएक अधूरी कहानी का मौन पनघटमें कवियित्री अपनी इन पंक्तियों के सहारे इन प्रश्नों का उत्तर स्वयं दे देती हैं
फिर क्या करूंगा तुम्हे पाकर
जहाँ तुम्हे ही खो दूं हाँ...
खोना ही तो हुआ ना
एक निश्छल प्रेम का
काया के भंवर में डूबकर
और मैं जिंदा रखना चाहता हूं,
हमारे प्रेम को,
अतृप्ति के क्षितिज पर देह के भूगोल से परे

वास्तव में प्यार सत्यम् ,शिवम्, सुन्दरम् के गूढ़ अर्थों को स्वयं में समेटे ईश्वर का दिया अनुपम उपहार है। यह उम्र की सीमाओं से परे आत्मिक अनुभूति का विषय है। जहाँ प्यार है, वहाँ जीवन है और जहाँ सत्य है, संयम है, विश्वास और पारदर्शिता है, वहाँ प्यार के बीज सीप से निकले मोती की तरह चमकते हैं।प्रेम कभी प्रौढ़ नहीं होतामें कवियित्री जैसे इन्ही विचारों को रेखांकित करने की चेष्टा करती प्रतीत होती हैं।

कवियित्री प्रेम कविताओं के आगे स्त्री विषयक प्रसंगों को जैसे ही छूने की चेष्टा करती हैं, उनके भीतर की ज्वालामुखी फट पड़ती है। बरसों से घर की चारदीवारी के भीतर सतायी हुई एक स्त्री की संवदेनायें जब भीतर तक आहत होती हैं, तब किस़ तरह मर्यादा की सीमारेखा तटबंधनों को तोड़ पूरी व्यवस्था को नेस्तनाबूद कर देती है। इसे उन्होने बखूबी चित्रित करने की कोशिश की है। इसे विडंबना ही कहें कि इस प्रगतिशील समाज का दंभ भरने वाले हर घरों में आज स्त्री किसी ना किसी रूप में शोषित और प्रताड़ित है। कवियित्री अपनी कविता अघायी औरतके माध्यम से उत्पीड़ित स्त्री के मन में उपज रहे इस विद्रोह को शब्दों का रूप देने का प्रयत्न करती है। कविता

ऋतुस्त्राव से मीनोपाज तक के सफर में एक कन्या से स्त्री बनने तक के शारीरिक एवं मानसिक मनोभावों का प्रभावपूर्ण रेखांकन है। एक कन्या में शनैः-शनैः विकसित होने वाले शारीरिक एवं मानसिक भावनात्मक लक्षण तथा एक संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना के लिये तैयार होने के पूर्व उभरने वाले शारीरिक लक्षणों के मध्य कन्या के मासिक उद्वेग एवं मनोभावों का चित्रण बेहद प्रभावी है वहीं इसके अवसान काल के प्रति एक स्त्री की आशंका का चित्रण पढ़ जैसे हृदय कांप उठता है।

कवियित्री जैसे-जैसे आगे बढ़ती हैं, वैसे-वैसे स्त्रीगत् संवदेनाएं और मुखर होते जाती है। पुरूष प्रधान समाज में स्त्रियों के लिये वर्जनात्मक विषयों के प्रति कवियित्री के विद्रोह के स्वर आज की प्रगतिशील नारी के सोच को प्रतिबिंबित करती है। वंदना अपनी कविताइतना विरोध का स्वर क्यूँमें एक स्त्री के प्रति पुरूष की परंपरागत सोच को बदलते हुये जैसे वह कहना चाहती है कि अब स्त्री केवल पुरूष के सौदर्य उपासना का साधन मात्र नहीं है और ना ही वह उसके चक्षुओं को तृप्त करने अथवा दैहिक उपभोग के लिये कोई वस्तु है। अब वह पुरूषों के परंपरागत सौंदर्य विशेषणों, उपमाओं एवं चिकने-चुपड़े अलंकारों से मुक्त होकर समाज के भीतर अपने अधिकारों की अपेक्षा रखती है। वह अजंता-एलोरा की भित्तचित्रों से निकलकर समाज में अपनी उपस्थिति का अहसास चाहती हैं। यह बेहद संवेदनशील नितांत मौलिक एवं नया विषय है, जिस पर कवियित्री ने अपने कलम से आधुनिक स्त्रियों के भीतर कुलबुलाती आहत किंतु मौन संवेदनाओं को शब्द देने की चेष्टा की है।

कवियित्री ने कुछ पौराणिक पात्रों को भी अपनी विषयवस्तु का आधार बनाया है और वर्तमान प्रगतिशील नारी के सापेक्ष उस चरित्र के समालोचना करने की चेष्टा की है। यह सत्य है कि पुरातन भारतीय समाज, स्त्रियों के संदर्भ में तमात तरह की वर्जनाओं एवं परिहार प्रथाओं का शिकार रहा है। एक पुरूष की अंधत्व की पीड़ा को स्वयं की नियति समझ कर स्वीकार कर लेना गांधारी के पतिव्रत धर्म के स्वस्वीकारोक्ति को दर्शाता है अथवा पुरूषप्रधान समाज के द्वारा एक स्त्री को नैतिकता के दलदल में धकेल पुरूष के दुर्भाग्य को ही भाग्य स्वीकार करवाने की पुरूषोचित कुंठित सोच को, यह बहस का विषय हो सकता है किंतु माता के रूप में गांधारी के कर्तव्य पलायन पर ना तो कोई प्रश्नचिन्ह है और ना ही कोई विवाद। एक संपूर्ण समाज के विलोपन के लिये गांधारी को दोषी ठहरा जब अपनी पंक्तियों के माध्यम से कवयित्री लिखती हैं
मैं इक्कीसवीं सदी की नारी
नकारना चाहती हूं,
तुम्हारे अस्तित्व को .....
देना चाहती हूं, तुम्हे श्राप
तो जैसे समस्त पंक्तियां अपने विचारों के ज्वार के साथ कंपन करने लगती हैं
स्त्रियां आज सभ्रांत घरों में शोषित और उपेक्षित है। उसकी प्रतिभायें अधिकतम संघर्ष के पश्चात स्वीकार्य होती हैं और स्थापित होने में तो कदाचित् बरसों लग जाते हैं। 

कवियित्री अपनी रचनाकागज ही तो काले करती होमें जिस व्यथा का चित्रण करती हैं, वह रचनाकार के रूप में उभरती कमोबेश हर स्त्री की प्रारंभिक व्यथा है,जिससे उबरने में या तो उन्हे अपनी पूरी ताकत झोंक देनी होती है या फिर उबरने के पहले ही घर की देहरी पर दम तोड़ देती हैं। कवियित्री समाजिक विषयों में, भ्रूण हत्या, स्त्रियों के शोषण,बदलते सामाजिक चरित्र को बड़ी बेबाकी से कहने का प्रयास करती हैं, कई बार ऐसा करते हुये उनकी पंक्तियां उनके अतिशय क्रोध का भी शिकार हुई हैं, कदाचित् ज्वलंत विषयों की ओर ध्यान आकृष्ट करते ऐसा हुआ होगा किंतुखोज में हूं अपनी प्रजाति के अस्तित्व कीमें वे घटते लिंगानुपात पर बेहद चतुराई से प्रहार करती हैं।

कवियित्री जब अंत में सभी तरह के विषयो से होते हुये दर्शन में प्रवेश करती हैं, तो उसके लिये प्रेम की संपूर्णता मिलन ना होकर विरह हो जाता है। वह यह स्वीकार कर लेती है कि वास्तव में विरह प्रेम का सौंदर्य है, प्रेम रूपी नन्हा सा पौधा तो विरह के अश्रु से सिंचित हो सर्वाधिक पुष्ट होता है। प्रेम वह स्वर्ण कणिका है जो विरह की धधकती ज्वाला में जितनी तपती है उतनी ही अधिक दृढ़ता से आलोकित होती है।अपनी कविताओह मेरे किसी जन्म के बिछड़े प्रियतममें अपनी इन पंक्तियों में अपने भाव को व्यक्त करती हैं।
अपूर्णता में संपूर्णता का आधार ही तो
व्याकुलता को पोषित करता है। ...
प्रेम के बीच विरह की कणिकायें जब और अधिक पल्लवित और पुष्टित होने लगती है अर्थात जब यह चमोत्कर्ष की ओर बढ़ने लगता है तो प्रेम पूजा का स्वरूप ग्रहण कर लेता है। वास्तव में जब कोई वस्तु एवं भाव अलभ्य हो जाये तो उसमें श्रद्धा का अंकुरण अनायास किंतु स्वाभाविक है। मीरा का कृष्ण के प्रति प्रेम के स्वरूप को इसी नजरिये से देखा जा सकता है।प्रेम अध्यात्म और जीवन दर्शनमें जैसे वे यही कहती हैं। अपने दर्शन विषयों से संबंधित अगली कविताओं में कवियित्री नेमैंके विलोप पर बल देने की चेष्टा की है। 

कवियित्री ने आचार्य रजनीश से संबंधित एक विषय को अपनी कविता में उठाया हैसम्भोग से समाधि तक इस कविता में भी उन्होने पुरूष केमैंसे संबद्ध दृष्टिकोण को नकारने की चेष्टा की है। दैहिक सम्मिलन में पुरूष का अहम्, सर्वत्रमैंके प्रति उसका अभिमान, स्त्रियों के प्रति इस अवस्था में भी दोयम सोच और इन सबके बीच आत्मिक आनंद से वंचित, इसके वास्तविक स्वरूप आध्यात्म से इस अवस्था में भी साक्षात्कार ना कर पाने, वासना के दलदल से बाहर ना निकल पाने के पुरूषवादी सतही मानसिकता को कवियित्री जैसे सिरे से नकारना चाहती हैं। वृहदारण्यक उपनिषद में एक स्थान पर लिखा गया हैसंभोग आनंद की पराकाष्ठा हैकिंतु इसका वास्तविक अर्थ वासनात्मक भोग-विलास नहीं है बल्कि जीवों का सम सम्मिलन है, जिसे वंदना गुप्ता अपनी कविता में उठाते हुये इसके वास्तविक अर्थ से जोड़ने का प्रयत्न करती हैं, वे एक स्थान पर लिखती हैं
जीव रूपी यमुना का,
ब्रह्म रूपी गंगा के साथ,
संभोग उर्फ संगम होने पर
सरस्वती में लय हो जाना ही आनंद या समाधि है।
और यही उपनिषदों में लिखे उपरोक्त शब्दों का भी उद्देश्य है, इस लिहाज से उनकी दर्शन से संबंधित कवितायें उपनिषदों एवं वेदों में लिखे उद्धरणों के करीब हैं। प्रायः यह कहा जाता है किसाहित्य समाज का दर्पण होता है” , किंतु मेरी नजर में जब तक उसमें भविष्य की बेहतर संभावनाओं के प्रति एक दृष्टि ना हो, उसमें समस्याओं के समाधान के मौलिक सृजन के संकेत विद्यमान ना हो तब तक ऐसा साहित्य निहायत ही खोखला एवं केवल समय व्यतीत करने तथा मनोरंजन के योग्य मात्र होता है और मुझे ऐसे साहित्य से परहेज है।

वंदना गुप्ता के साहित्य सृजन में समस्या भी है, समाधान भी है और इन समस्याओं के समाधान की दिशा में एक साहित्यकार की स्वयं की दृष्टि एवं मौलिक सोच भी है। कवियित्री एक साहित्यकार होने के साथ-साथ प्रबुद्ध सामाजिक प्राणी भी है जिनमें समाज में हो रहे नकारात्मक परिवर्तन के प्रति आक्रोश है और यही आक्रेाश उनकी कविताओं में कहीं घटते लिंगानुपात तो कहीं स्त्रियों के शोषण की व्यथाओं के आक्रेाश के रूप में उभरा है। कवियित्री समाधान चाहती हैं, पुरूषवादी सोंच में परिवर्तन कर तथा समाज में स्त्रियों के भीतर चेतना की लौ जगाकर। वह स्त्रियों की बेचारगी की पुरूषवादी दृष्टिकोण से उबरना चाहती है और हमें इस विचार का स्वागत करना चाहिये।

अंत में का जा सकता है कि सभी कवितायें बेहद प्रभावी, वैचारिक समझ एवं नयी सोच का बीजारोपण करने वाली है, सरल शब्दों का प्रयोग कर कवियित्री ने अधिकाधिक पाठकों के बीच पहुँचने का प्रयत्न किया गया है। रस, अलंकार, छंद स्वआयातित हैं। कहीं-कहीं कविताओं ने अनावश्यक विस्तार पाया है, कदाचित् इसे बचा जा सकता था, किंतु संभवतः प्रत्येक कवि के साथ उनकी प्रारंभिक रचनाओं में इस तरह की स्वाभाविकता देखने को मिलते हैं, जो आने वाली रचनाओं के साथ स्वतः ठीक हो जाती है। पुस्तक पठन के योग्य है, साहित्य के क्षेत्र में यह एक संग्रहणीय रचना है। मैं उनके उज्जवल भविष्य की कामना के साथ, साहित्य के विशाल क्षितिज पर उनका अभिनंदन करता हूं।

समीक्षक -राकेश कुमार
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