Tuesday 6 October 2015

संकटों के दौर में कबीर की प्रासंगिकता : समीक्षक -अनिल कुमार पांडेय

                             
                     

                         यह समय एक ऐसे संकट का समय है जहां सभ्यता के सारे दावे, विकास के सारे पैमाने, जो मानव अपने संघर्ष के दिनों से गुजरते हुए, जूझते हुए जीवन के तमाम विपदाओं और आपदाओं से प्राप्त किया है, कमाया है, झूठे साबित हो रहे हैं | यह कहना कि विकास किया है उसने, साभ्यतिक संसार का एक परिवेश रचा है उसने, एक पल के लिए सही माना जा सकता है और सही यह भी है कि जो स्वप्न उसने देखा भी कभी, उसे साकार किया है और एक हद तक आकार भी दिया है | समाज का, समुदाय का, संगठन का, और स्वयं अपना भी | पर यह सब जितने धीमे रूप में हुआ यह किसी से छिपा नही है और जितने तीव्र रूप से विनष्ट हो रहा है छिपा यह भी नही है किसी से | कितना अच्छा रहा होगा वह समय जब मानव मानव के साथ अपने व्यवहार को कायम रखने हेतु अपने अन्दर सद्गुणों का विकास करने के लिए नई नई तरतीबें सीख रहा था | रिश्तों की बुनियाद रखने के लिए प्रयत्न कर रहा था | क्या दुश्मन क्या दोस्त सबको अपना साथी और स्वयं को साथ चलने वाला राही समझ रहा था | उस समय मानव शायद मानव ही हुआ करता था | जानवर नही | यह तो लोगों की अज्ञानता है जो उसे यह कहने और समझने समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं कि वह अपने प्रारंभिक दौर में एक पशु के समान हुआ करता थायह बात समझ से बाहर है कि ऐसा आज के दौर में, और वह भी उनके द्वारा कहा जा रहा है जो एक विकसित समाज में रहते हुए भी पाशुविकता की समस्त हदें पार कर जाते हैं, ‘’कभी धर्म के नाम पर, कभी जाती के नाम पर तो कभी राजनीती के नाम पर |’’         
   यह एक साधारण सी बात या सामान्य सी घटना मात्र होकर एक गहरे आत्मबोध का विषय है, जिसपर विचार करना आवश्यक है | विचार की इसी आवश्यकता को महशूस करते हुए ही शायद युवा आलोचक डॉ० अशोक कुमार सभ्रवाल जी ‘‘कबीर : आधुनिक सन्दर्भों में’’ नामक आलोचनात्मक पुस्तक की सर्जना करते हैं | इस आलोचनात्मक कृति में  कबीर के बहाने ही सही मानवीय दुनिया पर मंडराते गहरे संकटों पर गहरे अर्थों में विचार किया गया है | जो इस पुस्तक की भूमिका में ही कबीर-काव्य और उनके व्यक्तित्व की प्रासंगिकता पर चर्चा करते हुए लेखक द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है, “ना काहूँ से दोस्ती, ना काहूँ से बैर’’ जैसी उच्च मानवीय भावनाओं से प्रेरित कबीर-काव्य, चिंतन मात्र का विषय होकर जनसामान्य के दुःख-दर्द, वेदना-संवेदना और उसकी आशा आकांक्षा का विषय है | विषय है यह उन सभी दिग्भ्रमित मानव-मन की जो या तो मानवीय-मार्ग से विचलित हो गये हैं या फिर मानवीयता को प्राप्त करने की कोशिश कर रहे हैं |”[1] हजारों करोड़ों वर्षों के विकसित मानव समुदाय पर पहली बार किसी कवि की लेखनी का व्यापक असर पंहुचा है जब व्यक्ति तमाम संकीर्णताओं से ऊपर उठकर मानवहित और मानव कल्याण की बात करने पर विवस हुआ है | कबीर-काव्य में वर्णित विषयों में समय-संदर्भित यथार्थ स्थितियों का अवलोकन हुआ है जिसे उन्हीं भावों में प्राप्त करने की कोशिश आलोचक द्वारा बड़े गहराई से की गयी है | इस गहराई में कबीर के समय के साथ साथ आलोचक का भी वर्तमान है | ‘कबीर : आधुनिक सन्दर्भों में’ सम्पूर्णता पर बात की जाए तो लेखक की दृष्टि में वर्तमान भौतिकतावादी मानसिकता से ग्रसित वह मानव समाज है जो विकास की पराकाष्ठा पर पहुँच चुका है, जहां अब प्राप्त करने के बहुत कम आसार हैं शिवाय खोने के | जबकि कबीर-विचार में हमे संतुलन स्थापित करने का विकल्प प्राप्त होता है और है भी यह ऐसा विकल्प जिसे प्राप्त कर लेने के बाद व्यक्ति आध्यात्मिक और भौतिकता दोनों ही दृष्टियों से सबलता को प्राप्त करता है | लेखक कबीर-विचार के रूप में प्राप्त इस विकल्प को अनूठी औषधि मानता है, जिसे पीने के बाद ऐसी कोई भी असाध्यता नही है जिसका अंत न हो सके | क्योंकि कबीर ने सामाजिक विरूपताओं तथा दुर्गुणों के निष्ठुर प्रहार के साथ ही युग की समस्याओं को भी अपने व्यंग्य के माध्यम से मूर्तरूप देने का प्रयास किया है | सामयिक विसंगतियों को जितनी बारीकी से संत कबीर ने देखा है उतनी उसके युग के किसी कवि या रचनाकार की दृष्टि उन पर नहीं गयी है|2  लेखक के अनुसार ‘‘भौतिकतावादी युग में कबीर पहले से अधिक प्रासंगिक है क्योंकि विकास ने सारी सीमाओं को लाँघ दिया है | सीमाओं को लांघना अर्थात दुखों को निमंत्रण देना | कबीर की वाणी इन्ही दुखों से छुटकारा दिलवाने वाली औषधि है | इस औसधी को जो पिएगा उसे ही मुक्ति मिलेगी | कबीर अनूठे हैं इसलिए कबीर की औषधि भी अनूठी है |’’3
     इस दृष्टि से विकास के उच्चतम शिखर पर पहुचने से कहीं ज्यादा आवश्यक आज मानव को मानव बनाए रखना है | आधुनिकतम  सुविधाओं से सजा-धजा यह मानव इसके पहले कि अंधाधुंध विकास के दंश से उपजे एक चिंगारी मात्र से कालकवलित हो उठे, उसे उसकी सीमाएं बताना जरूरी है | हालांकि यह प्रयास आज से नही बहुत पहले से किया जा रहा है और वह भी एक व्यापक अर्थों में | समाज नामक संस्था की परिकल्पना किया भी इसिलिये गया था मानव द्वारा | एक ऐसा समाज जहाँ  छोटा-बड़ा, ऊंच-नीच में किसी प्रकार की विभेदता न दिखाई दे | विभेदता आने से व्यक्तिपरकता का प्रभाव बढ़ता है और सामूहिकता की स्थिति नगण्य होने लगती है जो किसी भी दृष्टि से न तो मानव के लिए हितकर है और न ही तो उसके द्वारा कल्पित उस समाज के लिए ही, जिसके निर्माण के बाद कहीं गहरे में वह आस्वस्थ हो उठा है कि उसकी सुरक्षा और आम जरूरतों की पूर्ती का सायास प्रयास एक दूसरे के प्रति लोगों द्वारा होता रहेगा | इस विषय में आलोचक अशोक जी का यह कहना विल्कुल सही है कि ‘‘उसकी समस्त आशाएं, जो वह अपने जीवन काल में देखता है, ठीक तरीके से पूरी होती जाएँ इसीलिए वह समाज रुपी संस्था में शामिल होकर उसके विकास में अपना योगदान देता है और क्योंकि समाज किसी एक व्यक्ति का होकर व्यक्तियों के समूह का होता है, इसलिए जरूरी हो जाता है कि उस समूह में रहने वाले सभी जनों के सुख-सुविधाओं का ध्यान रखा जाये |’’4 विकास के जो पायदान अभी तक हम फतह कर सके हैं उसमे मानव का एक दूसरे के प्रति सहयोगी रवैया ही सबसे अधिक सहायक रहा है | यह अक्सर देखा जाता है कि यदि पडोसी भूखों मरता है, दूसरा किसी भी रूप में चैन की नींद नहीं सो सकता| कोई संकटों से घिरा है तो शायद ही कोई ऐसा होगा जो उसके संकटमय समय में भी अपने सुखी होने का एहसास दे सके | यह है समाज और यही है सामाजिक स्थितियां | इन स्थितियों एवं व्यवहारों के प्रस्तुति मात्र से सम्पूर्ण परिवेश खुशनुमा रहता है |    

      पर जब यह समाज ही पूर्ण रूप से एकाकी और संकीर्ण मनोवृत्ति को प्रश्रय देना शुरू कर दे ? एक को सबकुछ मानकर दूसरे को हाशिए पर धकेल दे ? उस समय विशेष में हाशिए पर लाया गया समाज का वह अंश अमानवीय मार्ग का अनुकरण तो करेगा ही करेगा | यह बात सामजिक पृष्ठभूमि में सबसे पहले कबीर को ही पता चलता है | वजह यही है कि कबीर सबसे पहले हाशिए पर लाए गए समाज के उसी अंश का पक्ष रखते हैं जिसे दानवता के मार्ग पर चलने के लिए लोगो द्वारा विवश ही नही किया गया अपितु उसके साथ पशुवत व्यवहार भी किया गया | ऐसा करने के पीछे कबीर का कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नही था | ऐसा इस लिए था कि ‘‘कबीरदास के  समस्त आग्रह मनुष्य, जीवन तथा जगत को संवारने के रहे हैं | उनकी सारी सोच चिंताओं का केंद्र जीव रहा है | जीवों में श्रेष्ठ मनुष्य के लिए वे बहुत दायित्व मानते हैं |’’5  
       कबीर के उद्भव पर विचार करते हुए आलोचक मनुष्य की स्वाभाविक विकासशील परम्परा के बीच आयी उसके व्यवहार में कटुता और संकीर्णता को कबीर व्यक्तित्व के उग्र होने और उनके द्वारा जनसामान्य के पक्ष में खड़े होने का प्रमुख वजह मानता है | और यदि हम मानव स्वभाव में आयी संकीर्णता और कटुता की बात करें तो स्वाभाविक है कि मानव सभ्यता जैसे जैसे विकसित हुई यह भावना बढती ही गयी | छोटे-बड़े, ऊंच-नीच, जाति-पांत, छुवा-छूत, भेद-भाव आदि सामाजिक कुप्रवृत्तियाँ उसके अन्दर हावी होती गईं | अपने ही घर के लोग उसके लिए बेगाने होने लगे और इन सबको विकराल रूप देने में मुख्य भूमिका निभाया ‘धर्म’ ने | धर्म के ठेकेदारों ने | ‘‘मध्यकाल तक आते आते सम्पूर्ण देश दो ध्रुओ, हिन्दू और मुसलमान में बंट गया और दोनों धर्मो के कट्टरपंथियों के विलासिता रुपी चक्की में पिसने लगी जनता | मुस्लिम, जो अब भारत के शासक के रूप में जानी जाने लगे, जहां इस्लाम धर्म के प्रचार प्रसार के लिए दंगा फसाद करने लगे, दुसरे को धर्म परिवर्तन करने के लिए विवश करने लगे, वहीं हिन्दुओं ने भारतीय संस्कृति की नियामक चतुवर्णीय व्यवस्था को, जिनमे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आते हैं, कर्म के आधार पर मानकर जाति, लिंग और कुल तथा वंश के आधार पर मानने लगे |”6 इस तरह दोनों ही धर्मो के ठेकेदार के रूप में प्रतिस्थापित मुल्ला-मौलवियों और पंडितों ने सम्पूर्ण समाज को विभाजित करके रख दिया | सम्पूर्ण देश साम्प्रदायिकता की चिंगारी से भभक उठा | ये तो मंदिरों और मस्जिदों में राग अलापते रहे और जनसामान्य सड़कों पर आ गयी | चारों तरफ अराजकता का माहौल बन गया | यहाँ डॉ० अशोक जी की यह बात ध्यान देने योग्य है कबीर के सम्बन्ध में कि “ऐसे कठिन स्थिति में उद्भव होता है कबीर का जिन्होंने सिर्फ उन दबे, कुचले, पीड़ित जनसमुदाय के प्रति अपनी संवेदना दिखलाई अपितु उन सभी रूढ़ियों और बह्याडम्बरों के प्रति अपनी घोर प्रतिक्रिया भी दी, जिनके आवरण में मानवता का अंश ही ख़तम होता जा रहा था | उस संकीर्ण परिवेश में कबीर ने बाजार रुपी समाज में खड़े होकर स्पस्ट रूप से यह बता दिया कि कोई भी मनुष्य वर्ण, जाती, कुल, वंश धर्म, पंथ के आधार पर छोटा या बड़ा नही हो सकता |7 आज भी समाज उसी रौ में बह रहा है जिस रौ में वह मध्यकाल में प्रवाहित हो रहा था | वे सारी मनोवृत्तियाँ आज भी उसी रूप में विद्यमान है | यह कहना विल्कुल सही है कि “समाज में संकीर्णता आज भी विद्यमान है | जतिवादिता अपने उसी रूप में आज भी मानव समूह का विभाजन कर रही है | बाँट रही है अलग अलग टोली और अलग अलग बस्ती में | जहां एक बस्ती विशेष के लोग दूसरी बस्ती में जाना भी पसंद नहिं कर रहे हैं कौन कहे एक दूसरे का सहयोग करने की | निम्न समझे जाने वाली जातियों का एक बहुत बड़ा भाग चमार, पासी, धोबी, धरिकार, मुसहर, डोम, आदि अनेक जाति के लोग ब्राह्मणवादी मानसिकता से उत्पीडित हो रहे हैं | इन उच्च जातियों द्वारा उनके अधिकारों और सम्मानों का हरण आज भी किया जा रहा है | कभी धर्म के नाम पर, कभी जाती के नाम पर तो कभी राजनीती के नाम पर | बहिष्कार का दंश झेलना उन्हें आज भी पड़ रहा है | उनकी भावनाओं, उनकी जिज्ञासाओं और प्रतिभाओं को उनके अब भी मारा जा रहा है | तब जब लोगों का कर्मकांडों से विश्वास उठता जा रहा है | विज्ञानं हावी हो रहा है , प्राचीनता का नाश और नवीनता प्रभावी हो रही है | फिर भी ब्राह्मणवादी मानसिकता घुन की तरह इस समाज को खाए जा रही है|8 इसका मतलब है कि अभी भी हमें बहुत सोचने और करने की आवश्यकता है |

         इसमें कोई शक नहीं है कि आज जनसामान्य में जागृति की नई लहर पैदा हुई है| वे अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति जागरूक हुए हैं| क्या अच्छा है क्या बुरा है इस स्थिति को अब वे भी महसूस करने लगे हैं| यह सब सम्भव हुआ है कबीर जैसे क्रांतिकारी व्यक्तित्व के ही दम पर| विरोध और विद्रोह की उनकी समन्वयात्मक विचारधारा ने जिस समतामूलक संस्कृति का सृजन किया है आज उन्हें आगे बढ़ाने की आवश्यकता है| आज भारत को और समूचे विश्व को कबीर जैसे संत और कबीरी परम्परा ही बचा सकती है |”9 डॉ० अशोक कुमार द्वारा लिखित “कबीर : आधुनिक संदर्भों में” इन्हीं आवश्यकताओं का ही प्रतिफल है| 

No comments:

Post a Comment