Sunday 25 October 2015

विवाह संस्था पर प्रश्न चिन्ह : एषणा


पिछले कुछ वर्षों के दौरान लघु उपन्यास अपने स्वर्णकाल के दौर से गुजर रहा है. रविन्द्र कालिया, स्वदेश राणा, ममता कालिया, डॉ. स्वाति पांडे इत्यादि लेखकों की रचनाएँ मील का पत्थर साबित हुयी हैं. ऐसे समय में विनय पाठक का लघु उपन्यास ‘एषणा’ विवाह संस्था की साधारण परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण करता दिखाई देता है और  विवाह संस्था को कटघरे में खड़ा कर देता है.

धीरज एक बैंक मैनेजर है जिसकी नई-नई शादी हुई है. लड़की को खाना बनाना नहीं आता जिसका दोष वह मन ही मन उसके परिवार वालों को देने की कोशिश करता है. लेकिन फिर भी वह अपनी नई नवेली पत्नी का सहयोग करता है “दो मैं इसे ठीक कर देता हूँ’ कहते हुए धीरज ने श्वेता के हाथ से आटे का बर्तन ले लिया. दो तीन मिनट के अंदर उसने आटे को बेलने लायक ठीक कर दिया.”
यह घटना धीरज को अपनी पत्नी के बारे में सोचने पर मजबूर कर देती है. उसके मन में अपनी पत्नी के प्रति कई प्रकार के सवाल उठने शुरू हो जाते हैं. मेरे माँ-बाप ने क्या देखकर इस लड़की से मेरी शादी कर दी ? “माँ की एक कमजोरी थी, वह थी गोरापन. लड़की गोरी थी उनकी नजरों में उस गुण के आगे और किसी गुण की आवश्यकता न थी.”
विवाह संस्था के मानक “लड़की देखना भी सच पूछा जाये तो औपचारिकता ही था. लड़की को माता-पिता और रिश्तेदारों ने देख लिया और शादी के लिए हाँ कर दी. माता-पिता को कुछ ऐसा लगा था कि लड़की और उसके घर वाले किसी दृष्टिकोण से उनकी बराबरी नहीं करते थे सिवाय एक दृष्टिकोण के. और वह दृष्टिकोण था पैसा.”
धीरज व उसका परिवार इन मापदन्डों को अपनाता है तो धीरज स्वयं ही इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि “और सच पूछा जाये तो लड़की देखना एक नया फैशन ही था. मध्य वर्गीय परिवार की तो यही कहानी ही है. उच्च वर्ग की नकल करना और निम्न वर्ग को हेय दृष्टि से देख स्वयं पर आत्ममुग्ध होते रहना बस यही उनकी फितरत है.”
धीरज चूँकि मध्यम वर्गीय जीवन जीता है. मध्यवर्गीय प्रवृत्ति के अनुसार वह अपनी पत्नी की तुलना किसी अन्य महिला से करने लगता है, जब वह अपनी महिला सहकर्मी के घर जाता है. “बीच बीच में वह कमरे की साफ़-सफाई और सुरुचिपूर्ण सजावट को देख लेता है. उसे लगता है कि उसकी पत्नी भी तो अकेले ही रहती है पर उसके टेबल पर तो किताबें, फाइलें बिखरी पड़ी रहती हैं.”
चूँकि धीरज कामकाजी है वह अपनी पत्नी के बारे में परम्परागत सोच रखता है. वह पत्नी को पूर्व निर्धारित मापदंडों पर खरा उतरना चाहता है. “ वह अपनी पत्नी को एक कुशल गृहणी के रूप में अवश्य देखना चाहता था. घर की साफ़ सफाई समय पर व खाने की उपलब्धता को वह बहुत महत्व देता था.”
आज भी अपनी पत्नी को सिखाने हेतु पति कई प्रकार के उपाय करता जैसे धीरज ने भी किया. “वह खुद घर के कई काम कर दिया करता था. सुबह उठकर बिस्तर ठीक कर देना, बर्तन मांझना और खाना बनाने तक का काम भी कर देता था.”
लेकिन दूसरी युक्ति का उसकी पत्नी पर उल्टा प्रभाव पड़ा. “धीरज यह सोच रहा था कि किसी कुशल महिला की तारीफ सुन कर श्वेता खुद भी वैसी ही बनने की कोशिश करेगी... परन्तु वह छाया की तारीफ सुनकर तमतमा जाती.”
इस लघु उपन्यास का यही वो पड़ाव था जहाँ से विवाह संस्था में दरारे पड़ने शुरू हो जाती हैं. महिला अपने पति पर शक करती है. अपने पति द्वारा महिला सहकर्मी की तारीफ, ईर्ष्या, द्वेष एवं एशणा का कारण बन रहा था. इसीलिए उसकी पत्नी अपने पति के बारे में निम्न स्तर तक का सोचने को मजबूर है. “आखिर वही एक स्टाफ तो नहीं है बैंक में. देखने में तो बहुत चालू लग रही है... सकता है इसी के चक्कर में धीरज को घर आने में देर हो जाती हो. वरना बैंक तो पांच बजे ही बंद हो जाता है.”
लेखक धीरज के माध्यम से  किसी को भी दोष देने की स्थिति में नहीं है. वह इस नतीजे पर पहुंचता है कि “अधिकांश मध्यमवर्गीय परिवारों में पुरुष का कर्तव्य पैसा कमा कर लाने का होता है. इसके अलावा वह घर के अन्य कार्यों में अपना समय जाया न कर अपनी ही दुनिया में मस्त रहता है. एक निरंकुश शासक की तरह लेखक ने पुरुष मानसिकता को अपने लघु उपन्यास में थोड़ा-थोड़ा इधर-उधर छिटका दिया है जिससे मनुष्य के आधुनिक चरित्र-चित्रण, उसकी चिन्तन प्रक्रिया, चिन्तन स्तर को आसानी से समझने का मौका मिलता है. धीरज के संगी साथी पढ़े-लिखे लोग हैं. उसका दोस्त जो एक डॉक्टर है. वह उसकी ऊब, घुटन और उसकी पत्नी के शक का समाधान वह इस प्रकार देता है- “नम्र स्वभाव वैसे अच्छी चीज है पर जहाँ आवश्यकता पड़े वहाँ मर्दानगी भी दिखानी चाहिए. तुलसीदास जी ने कहा भी है- ढोल, गंवार,  शुद्र, पशु, नारी, ये हैं सब ताडन के अधिकारी.”
लेखक ने धीरज के माध्यम से ही पति व पत्नी दोनों का ही पक्ष स्वयं अपने तरीके से निर्धारित करता है लेकिन पूरे उपन्यास में लड़की का पक्ष नगण्य है उसका पक्ष, उसका तर्क, उसके प्रश्न उसकी कठिनाई, उसका जीवन सब धीरज की नजरों से देखा गया है. लड़की का एक सवाल कि उसकी पति की जिन्दगी में दोस्त सिर्फ लडकियाँ ही क्यों हैं? यह सवाल धीरे-धीरे कलेश, कुंठा और एषणा का कारण बनता है.
धीरज अपने प्यार को त्याग कर पारम्परिक शादी करता है. धीरज अपनी कमजोरी को छुपाने के लिए बड़े ही तर्को और कुतर्को का सहारा लेता है. “हमारा समाज अभी गैर जातीय शादी के लिए तैयार नहीं ... बच्चों के भविष्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव ...आजकल खाप पंचायत और न जाने कैसी-कैसी पंचायतें हैं जो विजातीय शादी करने वाले दम्पति की हत्या तक कर देते हैं.”
धीरज पारम्परिक शादी करता है, बच्चा भी हो गया है लेकिन खुश नहीं है. अब उसके मन में सनातन विवाह संस्था पर संदेह होने लगता है... क्या सभी विवाहित लोगों का जीवन ऐसा ही है? ...विवाह के लिए लड़का-लड़की चुनने की पद्धति त्रुटिपूर्ण है. तो क्या हमारे देश में विवाह पद्धति बेकार है.”
धीरज जब अपने देश की विवाह संस्था पर सवाल उठाता है तो अन्य देशों से भी तुलना करता है लेकिन वहाँ भी विवाह संस्था का बेहतर विकल्प नहीं खोज पाता. ‘एषणा’ एक ऐसा लघु उपन्यास है जिसमें विवाह संस्था की दीवारों को गिरते देखा जा सकता है.उसकी सड़ांध को महसूस किया जा सकता है.
धीरज ने स्त्री के पक्ष में अनेकों तर्क गढ़ने की कोशिश की है कि मैं सही हूँ और तुम सही नहीं हो. उसने अपनी पत्नी को सिर्फ एक ऐसी स्त्री के रूप में ही विचार विमर्श किया गया है जो शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से पूरी तरह से पुरुष पर निर्भर थी.
विनय कुमार पाठक ने ‘एषणा’ की विषय-वस्तु का ताना बाना एक खास प्रकार की कथा शैली का निर्माण किया है. उन्होंने धर्म, संस्कृति और परम्परा की आड़ लेकर दकियानूसी और रुढ़िवादी विचारों को ‘एषणा’ के माध्यम से पाठक के सामने बड़े ही साहस के साथ प्रस्तुत किया है.

समीक्षक : एम.एम.चन्द्रा 

एषणा : विनय पाठक | अनवरत प्रकाशन | कीमत : 215 | पेज 96 

Monday 12 October 2015

स्मृतियों के स्वर्णिम दिन


‘स्मृतियों के स्वर्णिम दिन’ सुशील राकेश की वह साहित्यिक यात्रा है जिसमें उन्होंने साहित्य व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया, प्रेरणा, प्रोत्साहन, साहित्यिक सृजनशीलता, साहित्यिक प्रतिबद्धता और अपनी पक्षधरता को पाठकों के सामने बहुत ही सरल, सहज और स्वतंत्र लेखन के साथ प्रस्तुत किया है.
साहित्य और राजनीति में एकता और संघर्ष बहुत पुराना है. ‘न भूतो न भविष्यति’ के आलेख में निराला और राजनीतिज्ञ लोगों के मध्य मतभेद हो जाते हैं जिसे सुशील राकेश रहस्योद्घाटित करते हैं कि “जब राजर्षि अपने उद्घाटन भाषण में लेखकों को सुझाव दे रहे थे तो इस पर निराला जी ने खड़े होकर कहा कि क्या राजनीतिज्ञ अब हम साहित्यकारों को बतलायेंगे कि हम किस प्रकार का साहित्य रचें.”

यह वही विवाद है कि जिसपर प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल होनी चाहिए. वैसे तो यह संस्मरण इसलिए भी महत्वपूर्ण बन जाता है कि क्योंकि 50-60 के दशक में हिन्दी-उर्दू भाषा को लेकर जो बहस थी उसके राजनीतिक निहितार्थ को आसानी से समझा जा सकता है.
यकीनन यह एक ऐतिहासिक, साहित्यिक दस्तावेज़ है जिसमें सिर्फ स्मृतियाँ ही नहीं तथ्यात्मक वह समयकाल भी है जिसमें साहित्यिक गतिविधियों में होने वाली राजनीतिक हस्तक्षेप को आज के साहित्यिक आयोजनों, पुरस्कारों, सम्मेलनों के संदर्भों की दशा-दिशा को उस दौर की रोशनी में समझने का मौका मिल सकता है.
‘कोमल क्षणों में ‘प.सुमित्रानंदन पन्त’ आलेख में सुशील राकेश ने उन दिनों की याद को ताजा कर दिया जब साहित्य, समाज और साहित्कारों के योगदानों को संकलित करने और उन्हें प्रकाशित करने का बेड़ा उठाया था. उन्होंने पन्त जी के सान्निध्य में रहकर उन अनुभूतियों को उजागर किया जिससे सुशील राकेश का सृजनात्मक व्यक्तित्व उभरकर सामने आता है- “वह विशाल से विशालत्तर व्यक्तित्व वाला हिमाद्री का शिष्य मेरे शैशवकाल से मुग्धता, ममता और तन्मयता में सर्वप्रथम हर्षोल्फुल्ल होकर आया है, वह आज भी उसी तरह आकर्षण बनकर पुष्पों की गंध की तरह महक रहा है.”
प. इलाचंद जोशी को याद करते हुए सुशील राकेश ने उनके ऐसे अनसुलझे पहलुओं को उजागर किया है जिससे किसी लेखक का निर्माण, विकास-प्रक्रिया एवं दृष्टिकोण का निर्माण होता है. साहित्यिक चेतना का निर्माण और व्यक्तित्व का निर्माण दोनों एक साथ चलने वाली प्रक्रिया है. एक साक्षात्कार के माध्यम से प. इलाचंद जोशी बताते हैं कि मुझ पर किस लेखक की रचनाओं का प्रभाव पड़ा है? “देखिए ! मुझ पर प्रभाव उन सभी लेखकों का प्रभाव पड़ा है जिनका मैंने प्रेमपूर्वक अध्ययन किया है. जिन विश्व के महानत्तम साहित्यकारों की रचनाओं का प्रेमपूर्वक अध्ययन किया है. उनकी संख्या काफी है. इस काफी संख्या के अंतर्गत मेरे उन अतिप्रिय रचनाकारों की संख्या भी काफी से कुछ ही कम होगी तो आप ही बताइये कि यह मैं कैसे बताऊं कि मुझ पर किस एक रचनाकार का प्रभाव पड़ा है.” उपरोक्त कथन यह साबित करने के लिए काफी है कि बड़े रचनाकार का मतलब प. इलाचंद जोशी होता है जिन्होंने अपनी व्यक्तिगत चेतना को सामूहिक चेतना से प्रभावित पाया.
यह संस्मरण एक नये प्रकार की कथा शिल्प का निर्माण करने में सफल रहा है. ‘महादेवी का पर्व स्नान’ पढ़ते हुए ऐसा महसूस होता है कि महादेवी वर्मा स्वयं उपस्थित होकर पाठक से सीधे संवाद करती हैं. सुशील कहते हैं कि जब-जब वो मेरी स्मृतियों में आती हैं तो कोई न कोई रचना रचते हुए वो उत्फुल्ल मुद्रा में नया सन्देश देकर सबको प्रेरित करती हैं, कितना उज्ज्वल है उनका व्यक्तित्व, इसका वर्णन करना मेरी लेखनी के लिए असम्भव सा प्रतीत होता है-
बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले ?
पथ की बाधा बनेगें तितलियों के पर रंगीले ?
विश्व का क्रन्दन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस गीले !
तू न अपनी छांह को अपने लिए कारा बनाना !
जाग तुझको दूर जाना!
सुशील राकेश के समयकाल की यात्रा के सहयात्री शमशेर भी रहे. शमशेर के बारे में लिखते हुए लेखक कहता है कि 1936 में प्रगतिशील संगठन के साथ उनके जुड़ाव ने उनके विचारों को एक नई धारा की ओर मोड़ दिया. कविता के बारे में शमशेर द्वारा प्रस्तुत विचारों को भी लेखक ने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है. “हम किसी कविता का वास्तविक आदर तब करते हैं जब उसकी अच्छाई-बुराई दोनों तटस्थ भाव से वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखें.”
डॉ. धर्मवीर भारती और सुशील राकेश का परिचय मात्र इतना है कि दोनों ने एक दूसरे को मात्र चिट्ठी पत्री लिखी. इस पत्राचार ने लेखक के विचारों को काफी हद तक प्रभावित किया. इसलिए लेखक को कहना पड़ा कि “मैं आज भी नहीं समझ पा रहा हूँ कि जो वाणी और व्यवहार में भारती जी का साम्य था, प्रोत्साहन करने की कला थी, वो मुझे किसी सम्पादक में क्यों नही दिखाई दे रही है.”
सुशील राकेश की साहित्यिक यात्रा यहीं समाप्त नहीं होती. वे अमरनाथ गुफा से होते हुए निसार, मजहर, अब्दुल गनी खां साहब से होते हुए सम्राट जयन्द्र हर्षवर्धन तक की इतिहास लेखन की यात्रा करते हैं. ‘सृजन के द्वार पर’ की कवयित्री डॉ. साधना शुक्ल की समीक्षा करके उनके दृष्टिकोण और उनकी मौलिकता को साहित्य जगत में परिचय कराने का कार्य लेखक ने किया है.
इस संस्मरण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा साक्षात्कार भी है जिसने इस संस्मरण को दुर्लभ और ऐतिहासिक बना दिया है. नरेश मेहता युवा पीढ़ी के सृजनशील रचनाकारों के भविष्य के सवाल का जवाब देते हुए कहते हैं कि “अनिवार्यता मानता हूँ कि जीवन है, मनुष्य है तो अनिवार्यता सृजन भी होगा. न तो जीवन पर शक है, न मनुष्य की क्षमताओं पर शक है. आज हमसे भिन्न लेखक हैं, भिन्न होना भी चाहिए... निश्चित ही नई पीढ़ी अपनी तरह से नया लेखन करेगी... मैं यह भी कह सकता हूँ कि वह मुझसे अच्छा लिख सकते हैं...”
लेखक द्वारा डॉ. कृष्ण कान्त दूबे से हुई बातचीत में उल्लेख मिलता है कि ‘कविता इन्कलाब है’. इसीलिए लेखक भी नये साहित्यकारों के बारे में अपने विचार रखते हैं कि “युवा साहित्यकारों के साहित्य में नवीन चिन्तन और देश व समाज की समस्याओं से जूझने  का जज्बा मिलता है.”
इस संस्करण को ऐतिहासिक साहित्यिक धरोहर के रूप में अवश्य पढ़ा जाना चाहिए. संस्मरण के माध्यम से आजादी के बाद साहित्य और खासकर उत्तर प्रदेश के हिन्दी साहित्य के उद्भव और विकास की संरचना को भी पाठक वर्ग सरलता से समझ सकते हैं.” लेखक का योगदान साहित्य समाज के लिए अनुपम और अतुलनीय है जिसे युग-युग तक याद रखा जायेगा. यह संस्मरण एक साहित्यिक दस्तावेज़ भी बन गया है जिसका अध्ययन नव रचनाकार की यह उम्मीद जगाए रखता है कि दुनिया विकल्पहीन नहीं है.

समीक्षक : एम.एम. चन्द्रा 
स्मृतियों के स्वर्णिम दिन : सुशील राकेश | आशीष प्रकाशन | कीमत 500 | पेज 288



Friday 9 October 2015

दीपावली@अस्पताल.काॅम : समीक्षक डाॅ. शैली जग्गी


राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लेखिका डाॅ. मधु सन्धु का द्वितीय कहानी संग्रह दीपावली /अस्पताल.काॅम 2015 अयन प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित बीस कहानियों एवं छब्बीस लघुकथाओं का एक बेजोड़ संकलन है। सद्य लिखित-प्रकाशित रचना का अवलोकन स्वयं मे ही नवीनता और ताज़गी की अनुभूति देता है।

ये कहानियाँ और लघुकथाएँ जिनमें से कुछ नितान्त नवीन लेखन हैं तो बहुत सी विभिन्न चर्चित बहुचर्चित पत्रों, पत्रिकाओं एवं इन्टरनेंट पर समय-समय पर प्रकाशित हो चुकी हैं. 21वीं शती के प्रवेश द्वार पर यह पुस्तक एक नये अन्दाज से दस्तक देती दीखती है। कारण इस पुस्तक में प्रकाशित (संकलित) रचनाएँ 21वीं शती के साहित्य की मूल संवदेना-नारी विमर्श, दलित विमर्श, वृद्ध विमर्श, कथानकहा्रस, विसंगति, जिजीविशा, क्षमताबोध, अकेेलेपन और न जाने कितने पहलूओं को एक नई करीज़ के साथ प्रस्तुत करती हंै। कहानियों में युगबोध है, बेबाक स्पष्टता और ईमानदारी है लेकिन ऐसा कि पठन के बाद माथे के बल खुलकर एक  स्मित हास और गर्व से दीप्त हो जाएँ।

दीपावली/अस्पताल.काॅम शीर्षक ही प्रस्तुत पढ़ने के  लिए बाध्य कर जाता है। इस कहानी की चर्चा आगे रहेगी। वस्तुतः ये कहानियाँ समकालीन होकर भी अपने से एक दषक एक पीढ़ी आगे की कहानियाँ भी कही जा सकती हैं। पुस्तक का आगाज़ एक बेहद् खूबसूरत कहानी कुमारिका गृहसे हुआ है। यह प्रौढ़ कुमारियों-अविवाहिताओं का गृह है। जहाँ सभी स्त्रियाँ एक छत के नीचे, उच्चस्तरीय रहन सहन की गरिमा से दीप्त अपनी खुषियाँ और आह्लाद बाँट रही हैं। दुःख शेयर नहीं करती क्योंकि दुःखों को पीछे छोड़ ही तो उन्होंने इस होम का वरण किया था। वे दुःख जो उन्हें उनके अपनों ने दिये थे। कुमारिका गृह एक ऐसी सृष्टि है जहाँ कोई भी स्वेच्छा से इसका वरण करना चाहेगा। ये आत्म निर्भर आर्थिक सुद्ढ़ कुमारिकाएँ जीवन का एक-एक क्षण खुषी से जी रही हैं। जीवन को झेल नहीं रहीं क्योंकि वे मानवी है हव्वा को कब की दफ़न कर चुकीं ।

डाॅ. मधु संधु का यह कथा संग्रह बौद्धिकों का नवाज़ता है। प्रत्येक कहानी के पात्र कैसे भी हों, हार कर भी उबर आते हैं, टूट कर भी जोड़ जाते हैंै, भविष्य निधि योजनाएँ बाखूबी बनाना जानते हैं। सम्बन्धों के स्तर पर इन कहानियों में असम्बध या सम्बधहीनता कही नहीं आईं। स्थिति कैसी भी हो ये कहानियाँ बिखराव को टाँके लगाकर सँवार जाती है। संग्रह की जीवनघाती, फ्रैक्चर, कैटेरेक्ट कहानियों का पति पुरुष अहम् के कारण पत्नी के अहम् को ओवरटेक करना चाहता हैं, कमज़ोर नहीं पड़ना चाहता परन्तु यह स्त्री, यह पत्नी मौन होकर भी अपनी भूमिका को कमज़ोर नहीं पड़ने देती। पति को सहारा दे रही, आर्थिक सुदृढ़ता प्रदान कर रही है। मन से न जुड़ कर भी स्त्री धर्म से पीछे नहीं उदाहरण प्रस्तुत है। -- मैं देर रात घर पहुँचता, यह बाहर का दरवाज़ा खुला छोड़ सो जाती। मैं इसके आने-जाने को लेकर घड़ी पर गहरी सख़्त नजर डालता, यह दिनों के लिए मायके चली जाती। मैं अपनी अल्मारियों को ताले लगाकर घर में प्रायवेटाइजे़षन लाता, वह अपना लाॅकर तक खुला छोड़ देती। (पृ॰ 48) वस्तुतः यह एक पत्नी का मौन विद्रोह है बौद्धिक विद्रोह जो कसमसा देता है। क्योंकि यह स्त्री बहुत गहरी है, सषक्त है। इसी प्रकार  फ्रैक्चरकहानी में बीमारी और फ्रैक्चर सारी परिवार को जोड़ जाता है तो कैटेरेक्ट में उम्र के तीसरे पड़ाव पर खड़े व्यक्ति का ढलती उम्र का संत्रास है कि कहीं वह बुढ़ा गया है। डायरी कहानी एक प्रौढ़ अविवाहिता की कहानी है जिसने जिन्दगी को अपने ढंग से अपनी शर्तो पर जीया है लेकिन अकेलेपन की सीमाओं को वह लाँघ नही पा रही। तन्वीसिंगल पेेरेन्ट की कहानी है। एकल माँ तन्वी ने अपने इकलौती बेटी अप्सरा को डाॅक्टर बनाया, उसका विवाह किया परन्तु वही बेटी एक भरापूरा ससुराल पाकर माँ के लिए अजनबी होती जा रही है पर इतना कुछ होकर भी यह अकेली पड़ती माँ हारती नहीं साउंड करती।

डाॅ. संधु की कहानियों की विषिष्टता यह है कि वह जो भी विषय लेती हैं उसमें गहरे पैठ जाती हैं और फिर उससे जुड़े चिन्तन मनन के मोतियों के साथ ही बाहर आती हैं अन्य के लिए कुछ भी नहीं छूटता।

बाल मनोविज्ञान पर मुन्ना कहानी लिखी तो मुन्ना हो गईं, किषोर मनोविज्ञान पर दी तुम बहुत याद आती हो लिखी तो छोटी बहन हो गयी। वस्तुतः उन्होंने अपनी प्रत्येक रचना के पात्र को जीया है उस स्थिति, उस स्थान पर खुद होकर देखा है फिर जो लिखा वह अप्रतिम हो गया। उनकी पैनी सूक्ष्म दृष्टि से कुछ भी विगत नहीं हो पाता कोई गुंजाइष नहीं बचती। उनकी सास बहु सम्बन्धों पर चैनल कहानी दिल को छूती है अपनी मार्मिकता के कारण नहीं, बल्कि आज के आधुनिक परिवारों के घरेलू पचड़ो और पुत्र पति की दोहरी स्थिति में निहत्थे पुरुष की कहानी, जिसके लिए गृह युद्ध में एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई है। अजय का क्रियेष्चन लड़की शीतल से विवाह करना माँ को एक आँख नहीं भाता, पर यह सास पारम्परिक सास के सिहांसन पर ज्यादा देर बैठ नहीं सकती क्योंकि बहू भी पूरे जोड़ की है- उदाहरण प्रस्तुत है नी भरावां खाणिए, काका क्यों रो रहा है। माँ पूछती।
दादी के मरने का शोक मना रहा है।  शीतल झट जबाब देती। वह सोचता दोनों जोड़ की हंै। चलने दो। यह सोचने की उसने कभी चेष्टा नहीं की, कि शुरुआत कहाँ से होती है।" (पृ॰ 86) लेकिन कहानी का अंत नोकझांेक के बावजूद रिष्तों को करीब ला रहा है। सम्बन्ध हीनता के स्थान पर नये सम्बन्ध सृजित करती है ये कहानियाँ।

इसी प्रकार युवा मन की आंकाक्षाओं, धड़कते सम्बन्धों पर आधारित कहानी मैरिज ब्यूरोमोबाइल क्रांति की कहानी है। मोबाइल और स्मार्टफोन तो आज हमारे लिए आॅक्सीजन बन गये हंै। प्रेम सम्बन्धों में पहला उपहार  आज मोबाइल का आदान प्रदान ही तो बन रहा है। सन्मार्ग ने मंषा को अपना प्रेमापहार मोबाइल दिया खुद से बतियाने को, प्रेम स्पन्दनों को महसूसने को। लेकिन यह बौद्धिक नायिका जानती है कि दिल पागल हो सकता है परन्तु दिमाग नहीं। इसी मोबाइल को अस्त्र बना वह बचपन के साथी स्वरजीत को जो कि विदेष में सैटेल है, ऊँची नौकरी पर है, से विवाह कर सन्मार्ग को ठेंगा दिखा जाती है। भई इस पहलू पर तो हम सोच ही न सके। लेखिका की कहानियाँ एक भोगे, जीते हुए यथार्थ का आईना है। लगभग प्रत्येक कहानी में कोई न कोई विभाग उद्योग या इण्डस्ट्री है। वस्तुतः ये कामकाजियों की कहानियाँ है। बेरोजगारी, विसंगति आदि पर बात करना बीते युग का यथार्थ है। आवाज का जादूगर में ट्यूरिज़म इण्डस्ट्री है तो, गोल्डन व्यूह में मैरिज रिजाॅर्ट इण्डस्ट्री, शोधतंत्र’, इन्टेलैक्चुअल’,  ग्रांट’, संगोष्ठी’, ‘हिन्दी दिवस आदि में षिक्षा जगत तो दीपावली/अस्पताल.काॅम में चिकित्सा जगत और हाॅस्पीटल बिजनस है। जहाँ मरीजों का स्वागत दूल्हों सा होता है। मैडीकल ट्रीटमेन्टस के विभिन्न पैकेज हैं, लुभावना संसार है। अनेकों अनावष्यक चिकित्सीय सेवाओं के नाम  पर बनाये  भारी भरकम बिल्स हैं। 

अस्पतालों की दिन रात दीवाली और चांदी है। तो मरीजों और उनक परिवारों के लुटे पिटे बैक बैलेन्स। जैसे बेटी के विवाह में सामथ्र्य से अधिक खर्च कर चुके पिता का बेटी की विदाई के बाद दोहरा दुःख। कहानी की पंक्तियाँ झंकृत कर जाती हैं – ये दीवाली के आस पास के दिन थे।....... और अस्पताल में डाॅक्टर मरीज़ों के गैर ज़रूरी आपरेषन कर स्टंेट डाल मरे हुओं को वेंटीलेटर में रख दीपावली मना रहे थे।....... अब घर में मुर्दनी सा ही माहौल है। दीपावली की कोई हलचल  नहीं है। पहले संवाद की एक विषेष स्थिति थी- रेनोवेषन ...... और अब सब ठप्प होने की संवादहीनता, मुर्दनी।”  (पृ॰ 58) क्योंकि सारी जमापूँजी तो अस्पताल की दीपावली रौषन कर गई और यहाँ रह गयी अमानिषा।

लेखिका अध्यापन में कर्मरत रही इसलिए संग्रह में एक अच्छी खासी संख्या षिक्षा जगत् विष्वविद्यालीय वातावरण, साहित्यिक शोषण और गहन परदों की गिरह खोलती रचनाओं की है। षोधतंत्र में रिसर्च फैलो का दषावतार है कि वह फैलो को छोड़कर हर व्यक्ति का दायित्व निभा रहा है। परन्तु वह हताष नहीं इस भट्टी ने उसे कंुदन बना डाला। अन्त भले का भला हो गया। कहानी में साहित्यिक सम्मेलनों की तथ्यगत सच्चाइयाँ है। सरकारी ग्रांट हमारे उत्सवों का सामान हो रही है तो संगोष्ठी कहानी में षिक्षा को साम्प्रदायिक बना सहकर्मियों का मानसिक शोषण करने वाले अध्येयता हैं। कट, काॅपी, पेस्ट के नाम पर अपनी साहित्यिक उपलब्धियाँ गिनाते गुरुदेव हैं। लेकिन इसके समानान्तर ही संचेतन पात्रों की वैतरणी भी बहती रही है। 
जहाँ अनुभवों की भट्टी ने इन्हें कंचन कर डाला, शोषण ने जूझने की क्षमता दी। दलित विमर्ष पर लिखित संरक्षक कहानी में शोषित होती युवती प्रेमी और पिता दोनों द्वारा ही दैहिक शोषण का षिकार हो रही है। परन्तु यह किसी दूसरे के कुकृत्य के अपराध बोध से टूटती नहीं क्योंकि उसका हाथ थामने वाली सषक्त स्त्री उसकी बहन सबको मुहँतोड़ जवाब देकर उसेे एक नया संबल और जिजीविषा प्रदान कर जाती है।

काॅरपोरेट जगत के वातावरण से रूबरु करवाती सनराइज़ इन्डस्ट्री इसके भीतर की छटपटाहट को सामने जाती है कि आकर्षक वेतन पैकेज पा कर भी कथानायक एक घरेलू स्त्री से ही विवाह करना चाहता है। अभि कहता है – न बाबा न। उसे मालूम है कि कम्पनियाँ अपने एम्पलाॅजय को इतना बाँधती है कि गृहस्थ जीवन टुकडे़-टुकड़े हो जाता है। वह बस इतना जानता है कि पत्नी हाउस वाइफ हो तो घर में स्वीट होम की कंसैप्ट   बनी रह सकती है। एकल परिवार के उबाऊपन से छुटकारा पाने के लिए वह तो ममा पापा को भी साथ-रखना चाहता है। (पृ॰ 29) लेकिन विडम्बना यह है कि घरेलू पत्नी को भी कई बार यहाँ का जीवन जीने लायक नहीं लगता। विपिन की पत्नी ने उससे इसलिए नाता तोड़ लिया कि कई बार कम्पनी उसे देर रात तक उलझाए रखती थी।” (पृ॰ 29) वस्तुतः यंत्र जीवन जीता यह सैक्टर मोहन राकेष के घर की खोज की चाह पाने मे सक्षम नहीं हो पर रहा छटपटा रहा है। संगणक कहानी फैटंसी षिल्प में लिखी गयी है जहाँ कम्प्यूटर आने से पुस्तकें वेदनामय होकर अपनी सुख-दुख सांझे कर रही हैं।

संग्रह के दूसरे भाग में 26 लघुकथाएँ छब्बीस पृष्ठों में ही समा गई हैं। जिनमें व्यंग्य है, जिजीविषा है, विमर्ष है, पुरुषीय अह्म है जो स्त्री डाॅक्टर को मात्र लेडी डाॅक्टर यानि गायनाकोलजिस्ट मान जुकाम की भी उससे दवा लेना नही चाहता। भीख एवं भिखारियों का नवीनीकरण है, बीजी और वोटनीति लघुकथाओं में चुनावी समझौते हैं, अलादीन के चिराग से विभागीय क्लर्क हैं। लिव इन सम्बन्धों पर एक नई दृष्टि डालती लघुकथा है जिसमें दैहिकता के स्थान पर बंधनों-रिष्तों केे पचडे़ में न पड़कर एक रूममेट, एक साथी जैसा सौहाद्र और स्वच्छन्दता भी है।

भाषिक स्तर पर प्रत्येक कहानी के परिवषानुसार शब्द संयोजन, विभागीय, तकनीकी शब्दाबली लघु परन्तु सषक्त वाक्य संरचना, अल्पविरामों का बहुल प्रयोग, समास शक्ति से युक्त भाषा, समय की मांगानुसार अंग्रेजी शब्दों का बहुल प्रयोग तथा मनः स्थितियों के अनुसार रंग बदलती भाषा के रूप दिखायी देते है।

शिल्प के स्तर पर पूर्वदीप्ति और फ्लैष बैक का भी बहुधा प्रयोग मिलता है, कहीं एकालाप है, कही दिवास्वप्न, कहीं बिम्ब, कहीं प्रतीक, कही नवीन उपमान, कहीं कथानक हा्रस, कहीं बिन्दुओं को लगाकर स्थितियाँ बदलती गई हैं। परन्तु कथातत्व कहीं भी प्रदूषित नहीं हुआ कहानी कहानी ही रहती है। रूपकों के परिधान ओढ़ कर भी अपनी छवि कमज़ोर  नहीं पड़ने देती।

वस्तुतः डाॅ. मधुसंधु की प्रत्येक रचना उनके उस विषय से जुडे़ गहन अध्ययन, शोध परक  दृष्टि और कड़े होमवर्क के बाद निकला ब्रैंड है। जिसकी अपनी विलक्षणता है। अपना अंदाज है। इनके पात्र हारते नहीं, जूझते हैं। रेंगते नहीं सरसराकर क्षिप्रता से निकल भागते हैं। दाँतों तले उंगली दबाकर विस्फारित नेंत्रों से पाठक इन्हें देखता रह जाता है। ऐसी रचनाएँ जो वर्षों तक मानस पर अंकित रहती है।

समीक्षक -डाॅ.  शैली जग्गी
कहानी  - डाॅ मधु संधु
पुस्तक  - दीपावली@अस्पताल.काॅम
प्रकाशन - अयन प्रकाशान 
पृष्ठ  - 128
मूल्य      - 250 रूपये    ।
आई. एस. बी. एनः 978-81-7408-842-0