Monday 6 June 2016

जो दिल की तमन्ना है : मुकेष दुबे


यूँ तो शीर्षक ही कह रहा है कि कुछ दिल ने कहा है, परतु दिल हमेषा कुछ कहता ही रहता है। हर धड़कन एक ख्वाहिष होती है। होना भी चाहिये, न हो जो आरजू तो कितनी बेमानी होगी ज़िन्दगी। मगर यही हसरतें जब इंसानियत की हदों के उस पार जाने लगती हैं तब शुरू होती है समस्या।
संजय अग्निहोत्री जी की कलम ने ऐसे ही हालातों और तमन्नाओं को बेहद खूबसूरती से सेजोया है इस किताब में जिसका जिक्र यहाँ हो रहा है।
दरअसल दूसरो से आगे बढ़ने की ललक को वर्तमान व्यस्तता ने स्वार्थ की हद तक बढ़ा दिया है। स्वार्थपरता ने दूसरो के प्रति तटस्थता बढ़ाई जिसको मानवता ने कुनैन को शक्कर में पागने की तरह नाम दे दिया है सज्जनता का।
बस इसी सज्जनता ने जिसे आम आदमी शराफत के रूप में देखता है, अपनी आड़ में नैतिक, समसजिक जिम्मेदारियों और मानवीय मूल्यों को जीवन से विलुप्त करना आरम्भ कर दिया।
यही ह्रास तमन्नाओं को विकृत करता गया। संजय जी ने न सिर्फ उन्हें महसूस किया अपितु बेहद सेजीदगी से कागज पर उकेर दिया अपनी कलम से।
कहानी का प्रार्दुभाव होता है एक महान वैज्ञानिक और अनुसंधानकर्ता डॅा. प्रषांत कोठारी को उनकी उत्कृष्ट शोध के लिये मिलने वाले नोबल पुरस्कार की खुषी से। यहीं पर दूसरा अहम पात्र जिसको हम सूत्रधार भी कह सकते हैं, अस्तित्व में आता है। से है डॉ. प्रषांत का अभिन्न मित्र मदन प्रताप सिह, पेषे से इंजीनियर मगर शोध में रुचि होने के कारण डॉ.प्रषांत के सहायक के रूप में काम कर रहा है। एक और रिष्ता है उसका प्रषांत से। वो प्रषांत की साली का पति भी है।
मदन अपने दोस्त की कामयाबी को इस मुकाम तक आने के घटनाक्रम के लषबैक में डूब जाता है और सम्पूर्ण घटनाक्रम किसी चलचित्र की तरह उसके मानसपटल पर गतिमान हो किसी पहाड़ी नदी सा प्रवाहित होने लगता है।
यहाँ पर गहरे रहस्य का बीज पाठक के जेहन में सुषुप्तावस्था से निकल अंकुरित हो जाता है और नवांकुर से प्रस्फुटित होती हर कोंपल रहस्य को गहराती जाती है। शनैः शनैः जुड़ते हर पात्र के साथ कथानक गतिमान रहता है और एक सीधी सी लगने वाली बात असंख्य रहस्य के पर्दों में लिपट कर रहस्य, रोमांच व जिज्ञासा के किसी व्यूह में बदलने लगती है।
अद्भुत तिलिस्म बुना है लेखक ने जिसमें कहीं किसी जासूसी उपन्यास का रहस्य है तो कहीं सामाजिक रिष्तों की अकुलाहट है। दाम्पत्य जीवन की विषमताएँ भी हैं और मानवीय स्वभाव की कमजोरियाँ भी हैं। स्वार्थ है तो त्याग की अनुपम बानगी है।
एक और चरित्र की ऊँचाईयों का हिमालयीन षिखर है तो दूसरी ओर नैतिक पतन का रसातल है। मित्रता की पराकाष्ठा है जिसमें एक मित्र की उन्नति के लिये दूसरा मार्ग के हर शूल को चुनने की चाह में अपना दामन तार तार करने से नहीं चूक रहा। इस प्रयास में उसने जो किया उका एक अंष उसकी आत्मा को झिंझोड़ कर लहूलुहान कर रहा है। अनुत्तरित प्रष्न उछाल रहा है जिसका जबाव उस स्थान पर देना संभव नहीं है।
ये कथानक का वह हिस्सा है जहाँ प्रषांत की पत्नि प्रभा का चरित्र सेदेह में लिपटा नजर आ रहा है। अनेको बातें पाठक के मस्तिष्क में चल रही हैं।
प्रभा, कुमुद व मदन के रिष्ते की सच्चाई क्या है ?
क्या प्रभा वास्तव में पतिता है या कोई और ही रहस्य है ?
राजू और प्रभा की कैसी गुत्थी है ?
मदन की क्या विवषता उसे हालात के आगे घुटने टेकने को मजबूर कर रही है ?
हर सवाल का तथ्यात्मक व विष्लेषणात्मक जबाव आगे के पृष्ठों में मिलने वाला है, बस यही पेच पुस्तक से अलग नहीं होने देता पाठक को।
डॉ.कोठारी का शोध कार्य अनेकों रुकावटों के बावजूद सम्पादित हो रहा है क्योंकि मदन हर स्थान पर बेहद सजग व चौंकन्ना है।
यहाँ पर एक अहम पात्र की धमाकेदार प्रविष्टी की गई है जो वास्तव में एक खलपात्र होकर भी कथानक का महत्वपूर्ण अंग है। ये है एक लोभी वैज्ञानिक डॉ अधीर अब्भयंकर जो नाम के अनुरूप ही अपनी प्रसिद्धि के लिये अधीर रहता है। इसकी लालसायें ही तमन्नाओं का विकृत स्वरूप हैं जिनसे इस कथानक की जमीन तैयार हुई कही जा सकती है।
डॉ. अधीर की यष, प्रतिष्ठा और नाम की चाह उसका नैतिक पतन कर एक खतरनाक अपराधी बनाता जाती है आथ्र वह सभ्य समाज का प्रतिनिधि हर उस काम को अंजाम देने से नहीं चूकता जिसे समाज गलत कहता है और कानून में जिसके लिये सजा का प्रावधान है।
मुख्य कथानक के साथ ही यहाँ एक उप कथानक को बड़े ही सहज तरीके से पिरोया है संजय जी ने जिसने घटनाक्रम को और प्रभावी बना दिया है। प्रो. समर सिंह व उनकी पत्नी नीता सिंह के दाम्पत्य जीवन की कड़वाहट तथा समर सिंह की उच्चाकंठाओं की दुखद परिणिती का सुन्दरतम प्रस्तुतिकरण हुआ है। घटनाओं से उपजे रोमांच में डूबा पाठक पुनः प्रष्नों के हल ढूँढने में बैचेन रहता है।
नीता की हत्या की क्या वजह हो सकती है ?
कौन होगा नीता का हत्यारा ?
एक प्रेम विवाह क्यों असफल हो गया ?
अनेकों प्रष्न खड़े हो जाते हैं। अपराध और विषेषकर हत्या का शाब्दिक निरूपण कभी आसान नहीं होता। जिस तरह से लेखक ने उसे अंजाम दिया है भ्रम होने लगता है कि लेखक तकनीकी क्षेत्र से है अथवा मनोविकार व अपराध विज्ञान का विषेषज्ञ !
घटनाओं की प्रामाणिकता व सटीक विष्लेषण दाँतों तले उँगली दबाने पर विवष कर देता है।
हर घटना की तथ्यपरक विवेचना, पुलिस व खुफिया विभाग की कार्यषैली, अपराधियों की प्रवृत्ति सब ऐसे समाहित किये गये हैं कि मूल कथानक का प्रवाह लेषमात्र भी प्रभावित नहीं होता बल्कि उसे और अधिक पुष्ट करता जाता है।
एक शानदार संदेष लिये कथा अपनी पूर्णता पर पहुँचती है कि बुराई कभी नहीं जीतती और सत्य कभी पराजित नहीं होता।
हर शंका व पूर्व में उठे प्रष्नों के तार्किक समाधान के साथ कथा का सुखांत मन में हर्ष की तरंगे जगा देता है।
अपनी बात कहने में संजय जी द्वारा उद्घृत परम आदरणीय दिनकर जी की निम्न पंक्तियाँ सजीव हो उठती हैं -
‘‘समर शेष है,  नहीं पाप का भागी केवल  व्याध,
 जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।’’
कुल मिलाकर एक सफल व सार्थक लेखन जिसमें पाठक को वांछित प्रत्येक तत्व मौजूद है। प्रवाह एवं भाषा-षैली इतनी प्रभावी कि संप्रेषण में कोई रुकावट नहीं। हर तरह से बधाई के हकदार हैं संजय अग्निहोत्री ‘क्षितिज’ जी।
पुस्तक के सुन्दर आवरण, त्रुटि रहित टंकण व मुद्रण तथा स्तरीय सामग्री के लिये अंजुमन प्रकाषन, इलाहाबाद भी बधाई के पात्र हैं।
अंत में एक बार पुनः हार्दिक बधाई के साथ अनन्त शुभकामनाएँ भाई संजय अग्निहोत्री जी को कि उनकी सुलेखनी से अनवरत सृजन होता रहे।
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पुस्तक का नाम : जो दिल की तमन्ना है
लेखक        : संजय अग्निहोत्री ‘क्षितिज’
प्रकाषक      : अंजुमन प्रकाषन, इलाहाबाद
प्रकाषन वर्ष   : 2016
पृष्ठ सेख्या    : 144
मूल्य         : रुपये 130/-
समीक्षक      : मुकेष दुबे
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