Sunday 25 October 2015

विवाह संस्था पर प्रश्न चिन्ह : एषणा


पिछले कुछ वर्षों के दौरान लघु उपन्यास अपने स्वर्णकाल के दौर से गुजर रहा है. रविन्द्र कालिया, स्वदेश राणा, ममता कालिया, डॉ. स्वाति पांडे इत्यादि लेखकों की रचनाएँ मील का पत्थर साबित हुयी हैं. ऐसे समय में विनय पाठक का लघु उपन्यास ‘एषणा’ विवाह संस्था की साधारण परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण करता दिखाई देता है और  विवाह संस्था को कटघरे में खड़ा कर देता है.

धीरज एक बैंक मैनेजर है जिसकी नई-नई शादी हुई है. लड़की को खाना बनाना नहीं आता जिसका दोष वह मन ही मन उसके परिवार वालों को देने की कोशिश करता है. लेकिन फिर भी वह अपनी नई नवेली पत्नी का सहयोग करता है “दो मैं इसे ठीक कर देता हूँ’ कहते हुए धीरज ने श्वेता के हाथ से आटे का बर्तन ले लिया. दो तीन मिनट के अंदर उसने आटे को बेलने लायक ठीक कर दिया.”
यह घटना धीरज को अपनी पत्नी के बारे में सोचने पर मजबूर कर देती है. उसके मन में अपनी पत्नी के प्रति कई प्रकार के सवाल उठने शुरू हो जाते हैं. मेरे माँ-बाप ने क्या देखकर इस लड़की से मेरी शादी कर दी ? “माँ की एक कमजोरी थी, वह थी गोरापन. लड़की गोरी थी उनकी नजरों में उस गुण के आगे और किसी गुण की आवश्यकता न थी.”
विवाह संस्था के मानक “लड़की देखना भी सच पूछा जाये तो औपचारिकता ही था. लड़की को माता-पिता और रिश्तेदारों ने देख लिया और शादी के लिए हाँ कर दी. माता-पिता को कुछ ऐसा लगा था कि लड़की और उसके घर वाले किसी दृष्टिकोण से उनकी बराबरी नहीं करते थे सिवाय एक दृष्टिकोण के. और वह दृष्टिकोण था पैसा.”
धीरज व उसका परिवार इन मापदन्डों को अपनाता है तो धीरज स्वयं ही इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि “और सच पूछा जाये तो लड़की देखना एक नया फैशन ही था. मध्य वर्गीय परिवार की तो यही कहानी ही है. उच्च वर्ग की नकल करना और निम्न वर्ग को हेय दृष्टि से देख स्वयं पर आत्ममुग्ध होते रहना बस यही उनकी फितरत है.”
धीरज चूँकि मध्यम वर्गीय जीवन जीता है. मध्यवर्गीय प्रवृत्ति के अनुसार वह अपनी पत्नी की तुलना किसी अन्य महिला से करने लगता है, जब वह अपनी महिला सहकर्मी के घर जाता है. “बीच बीच में वह कमरे की साफ़-सफाई और सुरुचिपूर्ण सजावट को देख लेता है. उसे लगता है कि उसकी पत्नी भी तो अकेले ही रहती है पर उसके टेबल पर तो किताबें, फाइलें बिखरी पड़ी रहती हैं.”
चूँकि धीरज कामकाजी है वह अपनी पत्नी के बारे में परम्परागत सोच रखता है. वह पत्नी को पूर्व निर्धारित मापदंडों पर खरा उतरना चाहता है. “ वह अपनी पत्नी को एक कुशल गृहणी के रूप में अवश्य देखना चाहता था. घर की साफ़ सफाई समय पर व खाने की उपलब्धता को वह बहुत महत्व देता था.”
आज भी अपनी पत्नी को सिखाने हेतु पति कई प्रकार के उपाय करता जैसे धीरज ने भी किया. “वह खुद घर के कई काम कर दिया करता था. सुबह उठकर बिस्तर ठीक कर देना, बर्तन मांझना और खाना बनाने तक का काम भी कर देता था.”
लेकिन दूसरी युक्ति का उसकी पत्नी पर उल्टा प्रभाव पड़ा. “धीरज यह सोच रहा था कि किसी कुशल महिला की तारीफ सुन कर श्वेता खुद भी वैसी ही बनने की कोशिश करेगी... परन्तु वह छाया की तारीफ सुनकर तमतमा जाती.”
इस लघु उपन्यास का यही वो पड़ाव था जहाँ से विवाह संस्था में दरारे पड़ने शुरू हो जाती हैं. महिला अपने पति पर शक करती है. अपने पति द्वारा महिला सहकर्मी की तारीफ, ईर्ष्या, द्वेष एवं एशणा का कारण बन रहा था. इसीलिए उसकी पत्नी अपने पति के बारे में निम्न स्तर तक का सोचने को मजबूर है. “आखिर वही एक स्टाफ तो नहीं है बैंक में. देखने में तो बहुत चालू लग रही है... सकता है इसी के चक्कर में धीरज को घर आने में देर हो जाती हो. वरना बैंक तो पांच बजे ही बंद हो जाता है.”
लेखक धीरज के माध्यम से  किसी को भी दोष देने की स्थिति में नहीं है. वह इस नतीजे पर पहुंचता है कि “अधिकांश मध्यमवर्गीय परिवारों में पुरुष का कर्तव्य पैसा कमा कर लाने का होता है. इसके अलावा वह घर के अन्य कार्यों में अपना समय जाया न कर अपनी ही दुनिया में मस्त रहता है. एक निरंकुश शासक की तरह लेखक ने पुरुष मानसिकता को अपने लघु उपन्यास में थोड़ा-थोड़ा इधर-उधर छिटका दिया है जिससे मनुष्य के आधुनिक चरित्र-चित्रण, उसकी चिन्तन प्रक्रिया, चिन्तन स्तर को आसानी से समझने का मौका मिलता है. धीरज के संगी साथी पढ़े-लिखे लोग हैं. उसका दोस्त जो एक डॉक्टर है. वह उसकी ऊब, घुटन और उसकी पत्नी के शक का समाधान वह इस प्रकार देता है- “नम्र स्वभाव वैसे अच्छी चीज है पर जहाँ आवश्यकता पड़े वहाँ मर्दानगी भी दिखानी चाहिए. तुलसीदास जी ने कहा भी है- ढोल, गंवार,  शुद्र, पशु, नारी, ये हैं सब ताडन के अधिकारी.”
लेखक ने धीरज के माध्यम से ही पति व पत्नी दोनों का ही पक्ष स्वयं अपने तरीके से निर्धारित करता है लेकिन पूरे उपन्यास में लड़की का पक्ष नगण्य है उसका पक्ष, उसका तर्क, उसके प्रश्न उसकी कठिनाई, उसका जीवन सब धीरज की नजरों से देखा गया है. लड़की का एक सवाल कि उसकी पति की जिन्दगी में दोस्त सिर्फ लडकियाँ ही क्यों हैं? यह सवाल धीरे-धीरे कलेश, कुंठा और एषणा का कारण बनता है.
धीरज अपने प्यार को त्याग कर पारम्परिक शादी करता है. धीरज अपनी कमजोरी को छुपाने के लिए बड़े ही तर्को और कुतर्को का सहारा लेता है. “हमारा समाज अभी गैर जातीय शादी के लिए तैयार नहीं ... बच्चों के भविष्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव ...आजकल खाप पंचायत और न जाने कैसी-कैसी पंचायतें हैं जो विजातीय शादी करने वाले दम्पति की हत्या तक कर देते हैं.”
धीरज पारम्परिक शादी करता है, बच्चा भी हो गया है लेकिन खुश नहीं है. अब उसके मन में सनातन विवाह संस्था पर संदेह होने लगता है... क्या सभी विवाहित लोगों का जीवन ऐसा ही है? ...विवाह के लिए लड़का-लड़की चुनने की पद्धति त्रुटिपूर्ण है. तो क्या हमारे देश में विवाह पद्धति बेकार है.”
धीरज जब अपने देश की विवाह संस्था पर सवाल उठाता है तो अन्य देशों से भी तुलना करता है लेकिन वहाँ भी विवाह संस्था का बेहतर विकल्प नहीं खोज पाता. ‘एषणा’ एक ऐसा लघु उपन्यास है जिसमें विवाह संस्था की दीवारों को गिरते देखा जा सकता है.उसकी सड़ांध को महसूस किया जा सकता है.
धीरज ने स्त्री के पक्ष में अनेकों तर्क गढ़ने की कोशिश की है कि मैं सही हूँ और तुम सही नहीं हो. उसने अपनी पत्नी को सिर्फ एक ऐसी स्त्री के रूप में ही विचार विमर्श किया गया है जो शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से पूरी तरह से पुरुष पर निर्भर थी.
विनय कुमार पाठक ने ‘एषणा’ की विषय-वस्तु का ताना बाना एक खास प्रकार की कथा शैली का निर्माण किया है. उन्होंने धर्म, संस्कृति और परम्परा की आड़ लेकर दकियानूसी और रुढ़िवादी विचारों को ‘एषणा’ के माध्यम से पाठक के सामने बड़े ही साहस के साथ प्रस्तुत किया है.

समीक्षक : एम.एम.चन्द्रा 

एषणा : विनय पाठक | अनवरत प्रकाशन | कीमत : 215 | पेज 96 

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