Saturday 11 June 2016

होने से न होने तक : सूरज सिंह सार्की

हाल- फिलहाल राजनी छाबड़ा जी का काव्य संग्रह "होने से न होने तक" पढ़ा....न आलोचना, न समीक्षा है। बस काव्य संग्रह में क्या समाहित है उसी को बताने का प्रयास किया है........मेरा पहला प्रयास आपके सम्मुख...
होने से न होने तक
कवियत्री रजनी छाबड़ा जी का पहला काव्य संग्रह " होने से न होने तक" अयन प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है । इस काव्य संग्रह में छोटी - बड़ी कुल 62 कविताएं है । संग्रह की पहली कविता 'हम जिंदगी से क्या चाहते है' में वर्तमान समय के युवाओं का भटकाव दिखाया गया है फिर भी इन भटकते युवाओं में ज़ज़्बा तो है जो इन्हें जिलाये रखता है
' हम खुद नहीं जानते
हम जिंदगी से क्या चाहते है
कुछ कर गुजरने की चाहत मन में लिए
अधूरी चाहत में जिए जाते है'
यहाँ युवा कुछ नया करना चाहता है मगर घर के लोगों ने ही संस्कारों की दुहाई देकर उसके नए सोच को, नयी रीती- नीति को हमेशा के लिए क़ैद कर लिया है ।
'उभरता है जब मन में
लीक से हटकर
कुछ कर गुजरने की चाह
संस्कारों की लोरी देकर
उस चाहत को सुलाये देते है
'दिल के मौसम' कविता में इंसानी फितरत को कितना स्टीक दिखाया गया है, एकबानगी देखे
'होती है कभी फूलों में
काँटों सी चुभन
कभी काँटों से
फूल खिला करते है'
पाठक क्यों न सहज ही उनके सोच के गिर्द घूम जाए , फिलहाल 'चाहत' कविता की पंक्तियाँ तो यही कहती है
गर चाहत एक गुनाह है
तो क्यों झुकता है आसमान धरती पर
क्यों घूमती है धरती सूरज के गिर्द
माँ -बेटी के रिश्तों की गर्माहट लिए कुल 3 कविताएं संग्रह में है, 'प्रश्न चिह्न', 'माँ को समर्पित', 'क्या तुम रही हो माँ' !
'प्रश्न चिह्न' कविता में भ्रूण हत्या का मामला उठाया है। बेटी सवाल करती है
मैं बेटी हूँ
तो क्या अवांछित हो गयी
क्या बेटा जनमने से ही
गर्वित होती तुम?
किन्तु कवियत्री इस प्रश्न के उत्तर में ज्यादा गहराई से नहीं जा पाती। मात्र अपने ममत्व, वात्सल्य के ज्वार में बेटी पैदा करना चाहती है। जबकी बेटी को बेटे से अधिक महत्व दिया जाना चाहिए था। गर्भ में बेटी की हत्या के लिए स्त्री- पुरुष दोनों बराबर के जिम्मेदार है इस बात का जिक्र कविता में नहीं मिलता। कवियत्री के लिए बेटा- बेटी एक समान है
निज लहू से सींचे
बेटा हो या बेटी
दोनों एक समान
'माँ को समर्पित' कविता में अपने बच्चों के लिए माँ द्वारा किये गए शाश्वत और महान कार्यों का बखान किया गया है। निश्चित ही कवियत्री के स्वयं के अनुभव है। माँ के जिंदगी के आंखरी समय में उनकी शिशु की भांति सेवा, दुलार, प्रेम करना चाहती थी। मगर भाग्य को कुछ और मंजूर था तभी तो कविता में यह प्रसंग आया है
तुम, हाँ तुम, जिसने सारा जीवन
साथकर्ता से बिताया था
कभी किसी के आगे
सर न झुकाया था
जिस शान से जी थी
उसी शान से दुनिया छोड़ गयी थी
'क्या तुम सुन रही हो माँ' कविता में कवियत्री ने स्पष्ट बयान दिया है की आज काव्य लेखन में जो मुकाम मिला है उसका कारण माँ तुम हो। और इस काव्य लेखन के सफ़र में निरन्तरता रहे इसकी प्रेरणा भी माँ ही दे रही है
विचारों का जो कारवाँ
तुम मेरे जहन में छोड़ गयी
वादा है तुमसे
यूँ ही बढ़ते रहने दूंगी
× × × × × × × ×
तुम्हारी झलक देख
सरल शब्दों की अभिव्यक्ति को
निर्मल सरिता सा
यूँ ही बहने दूंगी ।
'एक दुआ' कविता के अन्तर्गत जवान होती बालिका के व्यवहार का वर्णन पूरी ईमानदारी से किया है और कौमार्यता के उम्र में दिन रात आईने में अपने को निहारती है। उसे अपना रूप सोने- चांदी सा दीखता है और खुद ही अपने सुंदरता का गुमान करती है। बेखबर रहना, सपनों की दुनिया में खोना किशोरावस्था की पहचान है। किन्तु नवयौवना की यह चंचलता, उमंगें, और सपनों पर नियंत्रण भी चाहती है ।
'पर वह मासूम नहीं जानती
कितनी नादान है वह
डोर किसी की हाथों में थामे बिना
पतंग उड़ नहीं सकती'
जिंदगी की थकान को दूर करने के लिए चंचल पतंग सा मन चाहिए। जहाँ कवियत्री सपनों के आसमान पर सतरंगी उड़ान भरना चाहती है। नभ् का विस्तार छू लेना चाहती है। पर्वत, पठार, अट्टालिकाएँ सब बाँधाओं को अनदेखी कर आगे बढ़ना चाहती है । और इस। क्रम में हकीकत से भी नज़रें नहीं चुराती इसलिए तो निसंकोच कहती है ।
'जिंदगी के आईने पर
सच के धरातल पर
टिके कदम ही
देते है जिंदगी के मायने'
बेशक इंसान की जिंदगी कम है मगर अपने ख़्वाबों को पूरा करने के लिए इच्छाशक्ति होनी चाहिए और हमें इस हेतु प्रयास भी करना चाहिए। कवियत्री ने निम्न पंक्तियों से सकारात्मक सन्देश देते हुए जीवन के प्रति जीवटता दिखाई है ।
'अंजाम की फ़िक्र में
प्रयास तो नहीं छोड़ा जाता
मौत के बढ़ते कदमों की आहाट से डरकर
जीने की राह से
मुँह मोड़ा नहीं जाता
जब तक सांस
तब तक आस'
उर्दू शायरी का असर भी काव्य संग्रह में कई स्थानों पर दिखाई देता है जो निश्चित ही पाठक को वाह- वाह, बहुत खूब कहे बिना नहीं छोड़ता
'एक ख़्वाब बेनूर आँख के लिए
एक आह खामोश लब के लिए
एक पैबंद चाक जिगर सीने के लिए
काफी है इतने सामान मेरे जीने के लिए
अहसास मनुष्य के लिए आवश्यक है जो उसको दूसरे जीवों से अलग करती है। दरअसल अहसास मानवता का पर्याय है। अहसास बिना मानवीय जीवन की कल्पना करना बेमानी होगी। इसलिए कितना सुन्दर सत्य कहती है
'अहसास कभी मरते नहीं
अहसास जिन्दा है तो जिंदगी है'
बाल श्रम की समस्या पर दो कविताएं है 'क्या शहर, क्या गाँव' तथा 'बाल श्रमिक'। पहली कविता में लाचार बालिका के माध्यम से बालश्रम का कड़वा- यथार्थ दिखाया है। स्कूल न जाने की विवशता तथा भाई -माँ का शोषण का कारखानों में हो रहा है। इस कविता का अंत बड़ा मार्मिक बन पड़ा है
'ममता के दो बोल को तरसता जीवन मेरा
मेरे जीवन का नाम अभाव
मेरे लिए क्या शहर, क्या गाँव
जीवन तपती दोपहरी, नहीं ममता की छाँव
बाल श्रम की पीड़ा कचोटती ही नहीं अपितु कवियत्री का ज़मीर इन कोमल बच्चों को स्कूल भेजने के लिए भी लालायित है
'पढ़ने की उम्र में श्रमिक न बन
कंधे पर बस्ता उठाये
शान से पाठशाला जाए'
जीने की जिजीविषा श्रमिक के पास ही बची है। न उसके पास ख्वाब है, अरमान है। बस किसी तरह जीवन संघर्ष में अपने को जिन्दा रखना है। बाल श्रमिक इस मायने में बेजोड़ कविता बन पड़ी है। जहाँ श्रम करने वाला बालक बोझा नहीं उठाता बल्कि मृत आकांक्षाओं की अर्थी उठाता है
'अधनंगे बदन पर लू के थपेड़े सहते
तपती, सुलगती दोपहरी में
सर पे उठाये ईटों से भरी तगारी
सिर्फ तगारी का बोझ नहीं
मृत आकांक्षाओं की अर्थी
सर पर उठाये
नारी के प्रति हैवानियत का खेल दरिन्दों द्वारा देश भर में खेल जा रहा है उसकी भी व्यापक चिंता नज़र आती है। गाँव- शहर में शालीनता- मर्यादा की धज्जियां उड़ रही है मानो औरत होना गुनाह है। इसलिए तो समाज को चेता रही है
'सुप्त समाज तुम फिर से जाग जाओ
चेतो और चेताओ,
सावधान रखो निगाहें तुम्हारी
बनो मर्यादा के प्रहरी
फिर न उभरने पाये कोई दिल्ली
धौलपुर, नसीराबाद, निठारी
सबकुछ पा लेने से जीवन में नीरसता आ जायेगी। व्यक्ति लापरवाह हो जाएगा। संभव है श्रम न करे। जिंदगी में अधूरापन भी जायज है जो कर्मक्षेत्र में निरंतर मानव को प्रयासरत रखता है
'पूर्णता बना देती है
संतुष्ट और बेखबर
× × × × ×
मुझे थोड़े से ही
अधूरेपन में ही जीने दे
घूंट- घूंट जिंदगी पीने दे
सतत प्रयासशील
जिंदगी जीने दे
वर्तमान दौर का इंसान अजनबीपन लिए हुए है । अपने संग- साथी से कटा- कटा है, डरा- डरा है और अविश्वास से भरा हुआ है। तभी तो कवियत्री गैरो से दुःख साँझा करने की हीदायत देती है और कहती है
तुम वह ईंट बन कर देखो
जो दिवार में नहीं
पुल में लगाईं जायेगी
जीने की रीत तुम्हें
खुद ब खुद आ जायेगी'
आज नौजवान पीढ़ी और बुजुर्गों के बीच एक दिवार खींची पड़ी है। जहाँ नई पीढ़ी के उच्छश्रृंखल युवा अनुभव- विवेक- ज्ञान से लबरेज वृद्ध का मखोल उड़ाते है, उन्हें फासिल्स कहते है। क्योंकि उनमे कोई क्रिया- प्रतिक्रिया नहीं होती, ये अपने को ज़माने के अनुसार नहीं बदलते है तथा संस्कारों की वेदी पर नौजवानों की इच्छाओं की बलि चढ़ाते है।और यह बात कवियत्री को नागवार गुजरती है जिसका पुरजोर विरोध निम्न पंक्तियों के माध्यम से किया है
नयी पीढ़ी भले ही इन्हें नाम दे
सड़ी- गली मान्यताओं के बोझ तले दबे फासिल्स का
लेकिन यही फासिल्स है सबूत इस सच का
कि इन्ही से मानवता जीवित है
× × × × × × ×
जिनका अनुकरण कर
सभ्यता के कगार पर खड़ी
आधुनिक पीढ़ी पा सकती है
संस्कारों के भण्डार
आज इंसान इस धरा पे प्रेम विहीन हो गया है, इंसान ही इंसान का दुश्मन बन गया है। मानवता तो जैसे एक भूली बिसरी बात बनकर रह गयी है। खौफ रातों में सोने नही देता, आशियाना जला दिया जाता है, स्त्रियों की अस्मत लूट ली जाती है और यह सब मंजर अमूनन दंगों में देखने को मिलता है। तब आदमियत के खून के निशान भी नहीं बता सकते की मृत देह हिन्दू है या मुसलमां
'धरा पर बिखरे
खून के निशान
नहीं बता सकता
उनमे कौन है
राम और रहीम'
सपनों के सहारे जी लेना कितना हसीन लगता है कवियत्री को। हसीं सपने जो उदास लबो पर हंसी देते है, बेनूर आँखों में नूर जगाते है, मासूम सी जिंदगी में संगीतमय साज बजाते है। वाकई कल्पना के पंख पसारे जिंदगी को जी लेना चाहती है। सपनों के पूर्ण विराम के खिलाफ है
'जिस पल नेरे सपनों पर
लग जाएगा पूर्ण विराम
मेरे जिंदगी के चरखे को भी
मिल जाएगा अनन्त विश्राम'
'होने से न होने तक' काव्य संग्रह अपने ने जिंदगी के विभिन्न पहलुओं को समेटे हुए है। जहाँ चाहत, याद, अहसास, सुख- दुःख, प्रश्न, दुआ, सपने, प्रेम, रिश्ते, इंद्रधनुष इत्यादि सभी कुछ है। जो अपने वाजिब जवाबो के साथ सवाल करते है
'होने से न होने तक का अंतराल
गहरे समेटे है अपरिमित सवाल'
सारांश कह सकते है कि संग्रह की कविताओं में लय, रवानी और गेयता है। भाषा सहज और सरल है ।भयंकर बुनावट के जाल से मुक्त है। बौद्धिक प्रतीक, शिल्प और बिम्ब से कोसो दूर है। इस कारण कविता के मर्मज्ञ विद्वान काव्य संग्रह में अनगढ़ता का आरोप लगा सकते है। बेशक कविता पढ़कर पाठक स्वतः ही भावों के उपवन में गमन करने लगता है। हाँ एक बात कवियत्री रजनी छाबड़ा ने यथार्थ के धरातल पर उतरने की भरसक असफल कोशिश की है तथा हद से ज्यादा आदर्शवाद परोस दिया है। काव्य में भावों को उकेरने हेतु बिम्ब को सशक्त बनाने के लिए कुछ शब्दों के प्रति ज्यादा मोह दिखाया है। जैसे इंद्रधनुष, वीराना, पतंग, पंख,शान आदि। इसके बावजूद भी कवियत्री का यह पहला काव्य संग्रह 'होने से न होने तक' आज के दौर में अपने उदात्त आदर्श भावों की छाप छोड़ने के लिए बेकरार है ।
समीक्षक  :सूरज सिंह सार्की

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