Monday 20 June 2016

सदियों का संताप : समीक्षक : डॉ गिरीश चंद्र पाण्डेय प्रतीक

बहुत दिनों बाद कल सायंकालीन भ्रमण पर जाने का सुअवसर मिला चर्चा ए किताब में साथ थी ओमप्रकाश बाल्मीकि की किताब सदियों का संताप निकल पड़े अपनी डगर की ओर साथ में थे पहली बार जुड़े मेहरा जी और रोज के साथी महेश पुनेठा जी राजेश पंत जी विनोद उप्रेती जी दीप पंत जी,मैं और साथ में था उत्साह और पके हुए बेदुओं के काले काले सुगन्धित फल ,एक नयी किताब को पढ़ने और समझने का किताब थी "सदियों का संताप" इस शीर्षक से ही मन संताप की ओर जाने लगता है और सदियों का मलिन इतिहास सामने मानो चीख और चिल्ला रहा हो की अब मुझे इतिहास में नहीं रहना मुझे वर्तमान से संघर्ष करना है।
मैं अब झाडुओं की सीकों को नहीं बिनना चाहता ।पखानों की बजबजाती दुर्गन्ध से दो चार नहीं होना चाहता ।नहीं बैठना चाहता अब कूड़े के ढेरों के पास ।कहता सा दिखता है अरे ओ! इतिहास के अपहरण कर्ताओ कभी हमारे जीवन के भूगोल और अर्थशास्त्र को हमारी नजरों से तो देख लेते।कभी हमारे खून पसीने से बह रहे तुम्हारे कुकर्म और सड़ांध को महसूस तो कर लेते।तुम क्यों करोगे ये सेंट लगाकर सोने वालो तुम्हारे नथुने तो बने ही हैं खुशबू सूंघने को।हाथ हथियार उठाने , पोथी पलटने और गल्ला भरने को ।कब तक आखिर कब तक ।
ओमप्रकाश जी दलित साहित्य के एक मजबूत स्तम्भ हैं और अगुवा भी जिनकी हर कविता मसाल लेकर क्रांति करती सी दिखती है।और कविता को हथियार की तरह प्रयोग करते है।अपनी चोट कविता को लेकर वो कहते हैं लोहा पिघलता भी है और ढलता भी है पर तुम नहीं ढल सकते ।

ओमप्रकाश जी बड़ी निर्भीकता से ललकारते भी हैं जिन कामों को हम कर रहे उन्हें करके देखो जो मजबूरी हमारी हैं उन्हें जीकर देखो ।सदियों का सन्ताप कविता संग्रह का कलेवर बहुत बड़ा नहीं फिर भी दमित भावनाओं का क्रांति कारी दस्तावेज या कहूँ उस वर्ग को प्रकाशित करने वाली मसाल है।

इनकी कविताओं को पढ़कर एक बात समझ में आयी खुद जिया हुआ समय और परिस्थितियां ही सत्य और यथार्थ के नजदीक होती हैं और वही रचना पाठक को उद्वेलित भी करती हैं।किताब पर खुलकर चर्चा हुई विनोद, राजेश ,राजू भाई ने भी दलित और दमित वर्ग के साथ हो रहे धर्म और मनगढ़ंत कथाओं के जरिये अन्यायों पर प्रकाश डाला गया अंत में महेश पुनेठा जी द्वारा भी पुस्तक में छुपे गूढ़ तथ्यों की ओर इशारा करते हुए कहा की असली कविता वही कहलाती है जो आपको अंदर तक हिला दे और समस्या के साथ समाधान भी सुझा दे और कुछ करने को प्रेरित करे ।समय हो चला था साढ़े सात वापस घर की ओर ओमप्रकाश जी के शब्दों और उनके जीवन की व्यथा के साथ ,शायद आज उनके शब्द सोने न दें।

डॉ गिरीश चंद्र पाण्डेय प्रतीक
पिथौरागढ़ उत्तराखंड

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