Saturday 26 September 2015

इश्क तुम्हें हो जायेगा : समीक्षक - वंदना गुप्ता


प्यार इश्क मोहब्बत आदिम की मूलभूत चाहना जिसके इर्द गिर्द है संसार की संरचना .एक आदिम प्यास , एक खोज , एक घटना , एक पीड़ा , एक दर्द , एक दुर्घटना जाने कितने नाम मिले मगर अंततः शरीर भूगोल से परे इसके तंतु तो सिर्फ रूह में मिले जो जाने कैसे बटे गए थे जितने खोले उतने उलझते गए फिर कौन कर सकता है व्यक्त निराकार को .....निराकार ही तो होता है प्रेम जो दो मानवों में आकार ले खुद को साकार करना चाहता है बस शुरू हो जाती है वहीँ से एक भटकन ........एक अंतहीन शुरुआत की ....... प्रेम चाहना है या उपासना या प्रताड़ना या आलोचना इन सन्दर्भों में कौन पड़े .......प्रेम में प्रेम होना ही शायद है उसकी सबसे बड़ी परिभाषा और फिर जब एक स्त्री प्रेम में होती है तो कैसे अपने भावों की गर्जना को संगृहीत करती है उसी संग्रहण का नाम है : इश्क तुम्हें हो जायेगा .

हिन्द युग्म प्रकाशन से प्रकाशित अनुलता राज नायर का कविता संग्रह अपने शीर्षक से ही सबसे पहले आकर्षित करता है और अन्दर जाओ तो प्रेम का अथाह सागर उमड़ा पड़ा है जिसका दिग्दर्शन पहली कविता ही कराती है :
‘ रूह ‘ जहाँ प्रेम का चरम है तो कवयित्री की सोच की महीनता भी जो बताती है इश्क का चरम तो रूह में तब्दील होने के बाद ही आकार लेता है जहाँ मानव मन तो पहुँच ही नहीं सकता वहां तो वो ही पहुँच सकता है जो नख से शिख तक प्रेम में डूबा हो . छोटी सी कविता में पूरा प्रेम शास्त्र मानो समा गया हो .



इसीलिए तो खाई जाती हैं कसमें
अपने अपने झूठ पर
सच की मोहर लगाने को
‘ कसम ‘ खाने का इससे बेहतर अर्थ कोई क्या देगा भला गागर में सागर भरती कविता गहन अर्थ संजोये है .

जीवन खेल ही स्मृतियों का है , उम्र का कोई भी दौर हो कोई भी मोड़ हो नहीं छोड़तीं स्मृतियाँ पीछा तभी तो ‘ स्मृतियाँ ‘ कविता के माध्यम से कवयित्री ने जब अपनी स्मृति का पिटारा खोला तो स्वाद की कडवाहट उतर ही आई

मुझे स्मरण है अब भी तेरी हर बात
तेरा प्रेम , तेरी हंसी , तेरी ठिठोली
और जामुन के बहाने से
खिलाई थी तूने जो निम्बोली
अब तक जुबान पर
जस का तस रखा है वो कड़वा स्वाद
अतीत की स्मृतियों का

‘ राग विराग ‘ कविता अतीत और वर्तमान में भ्रमण करती एक बार फिर प्रेम की आवश्यकता को स्थापित करती है

ऐसा नहीं कि प्रेम के अभाव में जीवन नहीं
मगर
बड़ा त्रासद है
प्रेम का होना और फिर न होना


उसकी आँखों को चूमे बिना ही
चखा है मैंने
कोरों पर जमे नमक को
एक रात नींद में वो मुस्कुराई
और बादल उसके इश्क में दीवाना हो गया

इसे इश्क की इन्तेहा न कहा जाए तो भला क्या कहा जाए , एक भीना भीना मीठा मीठा अहसास संजोये है कविता ‘ दुआ ‘ जिसका स्वाद , जिसकी कसक धीमा धीमा अन्दर ही अन्दर कसकती है .

‘ मेरे कमरे का मौसम ‘ एक बार फिर प्रेम का लबालब भरा प्याला ही तो है जहाँ प्रेमी , प्रेम और खुद के सिवा कुछ दिखे ही न , कुछ महसूसे ही न , जहाँ के रोम रोम में बस ठाठें मारता प्रेम का सागर हो वहां कैसे अन्य अनुभूतियों के लिए जगह हो सकती है भला
सारे मौसम एक साथ होते हैं जब
सब खिड़कियाँ बंद होती हैं और
मेरे कमरे में
तुम होते हो

अहा!
तुम , मैं और तुम्हारा बारामासी प्रेम !
यही तो एक स्त्री की चाहत की पराकाष्ठा है जिसे प्रेम भी चाहिए तो बारहमासी , पूर्ण रूप से , कोई मोल तोल नहीं क्योंकि न वो खुद अपूर्ण है और न ही जीवन में अपूर्णता चाहती है तभी तो ऐसे उदगार जन्म लेते हैं .

‘ प्रेम में होने का अर्थ ‘ कितने गहरे और सच्चे अर्थ समेटे है ये तो कोई उसमे उतरने वाला ही जान सकता है . गहन अर्थों को समेटे कविता प्रेम के अर्थ के साथ प्रेम का विसर्जन भी कर दे तो होगी न प्रेम के अर्थों में कहीं कोई ऐसी गहनता जहाँ प्रेम अपने होने के साथ न होने के विकल्प को भी समाये होता है :
मैं प्रेम में हूँ
इसका सीधा अर्थ है
मैं नहीं हूँ
कहीं और

आह ! क्या व्याख्या है , क्या परिभाषा है और यूं ही नहीं लिखा जा सकता ये सब जब तक प्रेम न किया हो किसी ने , जब तक उस राह पर न चला हो कोई क्योंकि अंत में जो कहा वो बिना अनुभव बिना अनुभूतियों के संभव ही नहीं :

मैं प्रेम में हूँ
इसके कई अर्थ हैं
और सभी निरर्थक

स्वीकार्यता और अस्वीकार्यता दोनों भावों का समावेश चंद शब्दों में संजोना मानो कवयित्री खुद स्वीकार रही हो दोनों ही परिस्थितियाँ , प्रेम के होने और न होने से परे उसके अर्थों को कर रही हो परिभाषित .

‘ प्रेम का गणित ‘ सच कितना गहन है ये तो सिर्फ कवयित्री ही बता सकती है जब कहती हैं :
यदि प्रेम एक संख्या है
तो निश्चित ही
विषम संख्या होगी
इसे बांटा नहीं जा सकता कभी
दो बराबर हिस्सों में

कहने को कुछ बचता ही नहीं सिर्फ कथ्य में ही डूबे रहो और गुनते रहो .

‘ प्रेम की प्रकृति ‘ सच ऐसी ही तो होती है जैसा कि कवयित्री ने चंद शब्दों में ही बयां कर दी और पाठक मंत्रमुग्ध रह गया :
प्रेम का एक पल
छिपा लेता है अपने पीछे
दर्द के कई कई बरस

कुछ लम्हों की उम्र ज्यादा होती है , बरसों से

जहाँ एक टीस है , एक कसक है , एक अकुलाहट है और एक समर्पण भी .छोटी छोटी रचनायें गहन अर्थ समेटे अपनी फुहारों में पाठक मन को भिगो देती हैं . सच यही तो है प्रेम का अर्थशास्त्र .


उस रोज
जब सीना चीरकर
तुम दे रहे थे
सबूत अपनी मोहब्बत का
तब चुपके से वहां
मैंने अपना एक ख्वाब
छिपा दिया था

जो हलचल है तेरे दिल में उसे
धड़कन न समझना
मानो यूं ‘ धड़कन ‘ को सही अर्थ दे दिया हो कवयित्री ने . जैसे सरोजिनी प्रीतम की कवितायें गागर में सागर भरती हैं फिर वो हास्य में कही गयीं हो वैसे ही अनुलता की कवितायेँ पढ़ते हुए  लगता है .


मैंने कुछ सकुचा के पुछा
सुखद से सुखद स्वप्न भी मुफ्त ?
उसने जवाब दिया
हाँ , हर स्वप्न मुफ्त
क्यूंकि किसी के भी
पूरा होने का कोई बंधन नहीं
कोई शर्त नहीं
फिर उनका क्या मोल
जो चाहे देखो
‘ सपनो का सौदागर ‘ कविता में मानो जीवन का शाश्वत सत्य उतार दिया हो .

‘ सिन्दूर ‘ कविता नारी मन , नारी जीवन का वो सत्य है जिसे हर स्त्री युगों से परिभाषित कर रही है अपनी अपनी तरह और आज तक पुरुष उसे पकड़ नहीं पाया क्योंकि वो उसकी तह तक कभी गया ही नहीं , जाना ही नहीं उसके त्याग और समर्पण को तो क्या समझेगा वो उसके प्रेम की परिभाषा को .....ये कविता तो मानो गूंगे का गुड है जिसके स्वाद की चाशनी में पाठक डूब जाता है जब कवयित्री हर चिन्ह की स्वीकार्यता को अपना प्रेम बताती है न कि थोपा हुआ आडम्बर और कह देती है अंत में उसे अपने जूनून का उन्मुक्त प्रदर्शन ..आह ! शायद तभी कवयित्री का  ‘प्रेम की कोई तय परिभाषा नहीं होती ‘ कहना सार्थक हो जाता है .


सो , अब तय कर दी है उसने
अपनी आकांक्षाओं की सीमा
और बाँध दी हैं हदें
ख्वाबों की पतंग भी कच्ची और छोटी डोर से बाँधी

ऐसा कर देना आसान था बहुत
सीमाओं पर कंटीली बाद बिछाने में
समाज के हर आदमी ने मदद की
ख्वाबों की पतंग थमने भी बहुत आये

औरत को अपना आकाश सिकोड़ने की बहुत शाबाशी मिली
‘ औरत की आकांक्षा ‘ को कब कोई समाज स्वीकार पाया है ? कैसे वो उन्मुक्त आचरण कर सकती है ? कैसे वो कोई ख्वाब देख कर उसे फलीभूत कर सकती है ? पहरे तो बिठाए ही जायेंगे उसके साथ कोशिश की जाती है उसे इतना बेबस करने की कि एक दिन जब उनके अनुसार आचरण करने लगे तो हो जाती है शाबाशी की हकदार या कहो एक सुगढ़ गृहणी , एक अच्छी स्त्री . खुद को नेस्तनाबूद कर जब ज़मींदोज़ किया तभी औरत को खुद को अच्छा दिखने का खिताब मिला .


प्रेम जब अनंत हो गया रोम रोम संत हो गया सच कहा किसी ने लेकिन जब प्रेम में नाकामी मिले तो ? यही है इश्क की वो सर्पीली चाल जिसके बारे में कहा गया है पता ही नहीं चलता कब कौन सा मोड़ ले ले और ऐसा ही तो ‘ नाकाम इश्क ‘ कविता का मनोविज्ञान है जिसमे कवयित्री नहीं सहेजना चाहती नाकाम इश्क की निशानियाँ भी और ढलका देती हैं समंदर के खारे नमक को आंसुओं के रूप में . प्रेम की ऊर्ध्गामी गति जहाँ प्रेमिका अस्वीकारती है हर वो जहाँ उसका अस्तित्व ही मिट जाए , उसका होना ही स्वीकार्य न हो वहां इश्क नाकाम ही हुआ करते हैं :

नामंजूर था मुझे खुद को खो देना
नामंजूर था मुझे तेरा नमक

‘ तारों की घर वापसी ‘ एक खूबसूरत बिम्ब का प्रयोग . प्रेम में तकरार को तारों चाँद और आसमान के माध्यम से बहुत खूबसूरती से संजोया है जो एक बार फिर प्रेम के एक और अलग रूप का प्रतिपादन करता है .....बिलकुल प्यार में तकरार भी होती है और तकरार इंसान ही नहीं करते बल्कि चाँद तारों में भी हुआ करती है .

‘ महामुक्ति ‘ ईश्वरीय तत्व , उस चेतन के प्रति समर्पण का भाव है जहाँ आत्मा और परमात्मा का मिलन हो जाए और द्वैत का भाव मिट जाए उस परम आनंद में समां जाने को आतुर है कवयित्री की चेतना जो हर कवि  या कवयित्री उसकी मूलभूत चाहत होती है और उसी खोज का परिणाम होता है लेखन और फिर कवयित्री में कृष्ण प्रेम स्वतः जागृत है तो ऐसी अनुभूतियों का जागृत होना स्वाभाविक है .

‘ रूपांतरण ‘ स्त्री का आंतरिक और बाह्य सौन्दर्य का प्रतिरूप है . कैसे एक स्त्री में अनेक स्त्रियाँ मिला करती हैं , कैसे अपने अन्दर संजोये होती है वो एक बच्चा भी तो एक सबल पुरुष भी . यानि स्त्री वक्त पड़ने पर बन सकती है बच्चा और कर सकती है बाल सुलभ चेष्टाएं भी तो वहीँ किसी आकस्मिक स्थिति में बन सकती है पुरुष से भी ज्यादा सबल क्योंकि यही है उसकी प्रकृति , आखिर जननी है वो जानती है हर माहौल में जरूरत के अनुसार खुद को उस प्रकृति में रूपांतरित करना और यही फर्क है एक स्त्री होने में बनिस्पद पुरुष होने के .

‘ पापा ये आपके लिए ‘ में कवयित्री ने अपने उन मनोभावों को पिरोया है जिससे अक्सर सभी गुजरते हैं . एक वक्त होता है जब पिता की ऊंगली पकड़ बच्चा चलना सीखता है और एक उम्र पर उसी पिता को अपने बच्चे की ऊंगली की जरूरत पड़ती है या फिर कब क्या खाना पीना है उसका ध्यान रखना या चोट लगने पर दर्द का अहसास होना वो सब एक बेटी को भी उसी तरह होता है जैसा उसके पिता को होता है और बदल जाते हैं पात्रों के रूप वक्त के साथ . बचपन में जैसे बच्चों को पिता की जरूरत होती है वैसे ही बुढापे में उन्हें बच्चों की , एक खूबसूरत सन्देश देती हुई मार्मिक कविता मन भिगो देती है .

‘ प्रेम कविता ‘ प्रेमियों की वास्तविक स्थिति का चित्रण है . सच है ये जो प्रेम करते हैं उन्हें जरूरत नहीं कविता के माध्यम से व्यक्त करना और जो जानते भी नहीं प्रेम करना वो ही अक्सर कागज़ काले किया करते हैं क्योंकि ख्याली आकाश इतना विस्तृत होता है उसमे ही जीना उन्हें सुगम लगता है जबकि हकीकत में जरूरत नहीं होती असल प्रेमियों को किसी भी उपालंभ की क्योंकि प्रेम की प्रकृति ही यही है कि जब दो दिल मिल रहे होते हैं , जब प्रेम , प्रेमी और प्रेमास्पद का मिलन होता है तब
प्रेमी नहीं करते बातें
ऐसी वैसी
कैसी भी

वे नहीं करते प्रेम से इतर
कुछ भी .........

यही तो प्रेम का वास्तविक सत्य है . जहाँ प्रेम होगा वहां बस प्रेम का ही साम्राज्य होगा तो फिर कैसे ढूंढ सकते हैं हम उसमे अन्य चाहतें , इच्छाएं या आकांक्षाएं , यही तो स्थिति है प्रेम में प्रेम होने की क्योंकि वो समय तो सिर्फ एक दूजे में खो जाने का होता है राधा कृष्ण सा .

पूरा संग्रह प्रेम के आख्यानों का दस्तावेज है .हर कविता में एक धमक है ,एक रुनझुन है , एक छमछम है .  एक मंद मंद बहती नदी बहा ले जाती है अपने साथ अपने प्रेम के प्रवाह में . छोटी छोटी सीधे सरल शब्दों में व्यक्त की गयी प्रेम की अनुभूतियाँ हैं जिन्हें कवयित्री ने कलमबद्ध किया और पाठकों के लिए प्रस्तुत किया तो पाठक भी उस प्रवाह में बहने से खुद को रोक न सका . मंत्रमुग्ध सा कवयित्री की ऊंगली पकडे चलता चला गया और फिर खुद को कहने से रोक न सका सच कहती है कवयित्री : ‘ इश्क तुम्हें हो जायेगा ‘ . सच संग्रह से इश्क हुए बिना एक सच्चा पाठक तो रह ही नहीं सकता क्योंकि कहीं न कहीं हर जगह उसके दिल के जज्बातों को ही तो कवयित्री ने पिरोया है .
अनुलता राज नायर का पहला कविता संग्रह पहले प्रेम की तरह है जिसमे कोंपले फूटी हैं और वो अपनी कच्ची सी , भीनी सी सुगंध से पाठक के मन मस्तिष्क पर अपना एकाधिकार जमाने को आतुर हो . कवयित्री को बधाई देते हुए उनके उज्जवल भविष्य की कामना करती हूँ .





2 comments:

  1. मेरे जैसे बन जाओगे, जब इश्क तुम्हें हो जायेगा.... दृष्टि लिखे हुए को पढ़ रही थी और नेपथ्य में कहीं ये पंक्तियाँ मधुर लहरियों की तरह कानों में बज रही थीं। रूमानी से लग रहे शीर्षक की अतुलनीय मीमांसा.... अर्थ को गहराई से बेधती और भावों को यथार्थ से संबद्ध करती शैली किसी झरने सी कलकल की तरह शुरू से अंत तक बाँधे रही। ऐसा लगा जैसे मूल संग्रह हाथों में है। हर एक पद पर बेबाक टिप्पणी एवं भावार्थ विश्लेषण वन्दना जी की विशेषता है, इस समीक्षा में उसका अप्रतिम अनुप्रयोग किया है। शब्द संयोजन अनुपमेय होने के साथ सहज, सरल व गतिमान होने से पढ़ते समय मिठास में पगा महसूस होता है।
    अद्भुत मीमांसा जो मूल संग्रह पढ़ने की बैचेनी दे जाती है। हार्दिक बधाई एवम् अशेष शुभकामनाएँ।

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  2. मेरे जैसे बन जाओगे, जब इश्क तुम्हें हो जायेगा.... दृष्टि लिखे हुए को पढ़ रही थी और नेपथ्य में कहीं ये पंक्तियाँ मधुर लहरियों की तरह कानों में बज रही थीं। रूमानी से लग रहे शीर्षक की अतुलनीय मीमांसा.... अर्थ को गहराई से बेधती और भावों को यथार्थ से संबद्ध करती शैली किसी झरने सी कलकल की तरह शुरू से अंत तक बाँधे रही। ऐसा लगा जैसे मूल संग्रह हाथों में है। हर एक पद पर बेबाक टिप्पणी एवं भावार्थ विश्लेषण वन्दना जी की विशेषता है, इस समीक्षा में उसका अप्रतिम अनुप्रयोग किया है। शब्द संयोजन अनुपमेय होने के साथ सहज, सरल व गतिमान होने से पढ़ते समय मिठास में पगा महसूस होता है।
    अद्भुत मीमांसा जो मूल संग्रह पढ़ने की बैचेनी दे जाती है। हार्दिक बधाई एवम् अशेष शुभकामनाएँ।

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