अभी कुछ दिनों
पहले समकालीनता पर
पर्चा लिखने की एक
असफल सी कोशिश की
पर जब पर्चा पूर
हुआ और उसे लिखने
से पूर्व समकालीनता के
जिन पहलुओं से मुलाकात
हुई उन पहलुओं के
मद्देनज़र विमलेश त्रिपाठी एक
अद्वितीय कवि के रूप
में उभर कर सामने
आते हैं। विमलेश जी
का नवीन काव्य संग्रह ‘उजली
मुस्कुराहटों के बीच’ अभी कुछ
दिनों पहले छप कर
आया है।‘प्रेम कविताओं’
का यह संग्रह न
केवल एक नूतनता लिये
हाज़िर हुआ है बल्कि ‘प्रेम’ को
महज एक शब्द के
रूप में नहीं बल्कि
उसमें निहित गंभीर अर्थ
को व्याख्यायित भी
करता है।संग्रह की
कविताएं दो शीर्षकों के
अन्तर्गत विभक्त हैं- पहला, आखर रह
जाएंगे और दूसरा, बीच की
ढलानों पर कहीं।
संग्रह
के प्रथम शीर्षक के
अन्तर्गत आने वाली कविताओं
में प्रेम के जिस
रूप को देखा जा
सकता है वह इस
कठिन समय में कमज़ोर
पड़ रहे रिश्तों, मनुष्य के
अंदर घर कर गई
चुप्पी, विपरीत परिस्थितियों से
लड़ने की खोती जा
रही क्षमता, बाज़ार का
बढता प्रभाव इत्यादि और
भी गंभीर समस्याओं को
लेकर आगे बढती है।
प्रथम
शीर्षक के अन्तर्गत आने
वाली कविता ‘एक भाषा
हैं हम’ कवि की
ख्वाहिश के रूप में
उभर कर सामने आती
है। कवि एक ऐसी
भाषा गढना चाहता है
जिससे वह एक ऐसा
महाकाव्य लिख सके जिसमें
वह कमज़ोर पड़ते जा
रहे संबंधों को मजबूती
प्रदान कर सके-
शब्दों के
महीन धागे हैं
हमारे संबंध
कई कई
शब्दों के रेशे से
गुथे
साबुत खडे
हम
एक शब्द
के ही भीतर
X X X
एक ऐसी
भाषा
जिसमें हमें
एक महाकाव्य
लिखना है।
कवि शब्दों के माध्यम
से इस त्रासद समय
में खोते जा रहे
संबंधों को बचाने के
पक्ष में पूरी तरह
खड़ा नज़र आता है।
इस
संग्रह की एक दूसरी
कविता है- ‘तुम्हारे लिये
एक कविता’। यह
एक ऐसी कविता है
जो मौजूदा समय में
स्त्री की स्थिति को
दर्शाती है। इस दौर
ने स्त्री को चारे
में तब्दील कर दिया
है,
उसे असुरक्षित कर
दिया है। कवि इस
स्त्री को कुछ यूं
उद्घाटित करता है-
तुम जो
सुरक्षित नहीं हो घर
और बाहर कहीं भी
तुम जिसको
दुनिया ने मनुष्य से
एक चारे
में तब्दील कर दिया
है।
कवि, चारे में
तब्दील कर दी गई
इस स्त्री को पूरी
संवेदना से उजागर करता
हुआ
‘झूठ-मूठ
के इस समय में’ ‘चुप’ होने
को एक खतरनाक स्थिति
मानता हुआ ‘चुप हो
जाओगे एक दिन जब’ शीर्षक
कविता में बड़ी संजीदगी
से उकेरता है-
चुप हो
जाओगे एक दिन तुम
जब बोलते
बोलते
तब यह
पृथ्वी अपने चाक पर
रूक जायेगी
हवा में
ज़रूरी आक्सीजन लुप्त
और दुनिया
से हरियाली आलोपित हो
जाएगी।
‘चुप’ रहने
की यह स्थिति कविता
के लिये भी घातक
सिद्ध हो सकती है
ठीक उदय प्रकाश की
कविता ‘मरना’ की तरह जिसके
अनुसार कुछ नहीं बोलने
और कुछ नहीं सुनने
से आदमी मर जाता
है।
कवि
भी उपरोक्त सत्य से
भली-भांति
परिचित जान पड़ता है
तभी तो इस अंधेरे
समय में भविष्य के
उजले दिनों के साथ ‘तुम्हें
याद कर रहा हूं’ शीर्षक
कविता में प्रतीक्षारत दिखाई
पड़ता है –
और
तुम्हें इल्म भी नहीं
मेरे अपने
कि
तुम्हें याद कर रहा
हूं मैं इस अंधेरे
समय में
भविष्य
में उजले दिनों की
तरह
जिसकी
प्रतीक्षा लिये सदियों से
संघर्षरत हूं
एक
कवि इस पृथ्वी पर
मैं
अथक्।
‘हम-तुम’ शीर्षक कविता ‘अजीब
सी हो गई पृथ्वी’ को
लेकर एक गंभीर चिंतन
को लेकर आगे बढती
है और पृथ्वी पर
व्याप्त इस विपरीत समय
में कवि एक ऐसी
धारा प्रवाहित करना
चाहता हैजो इस निर्मम
समय में हथेलियों के
बीच गुलाब उगा सके –
तुम फूल बन
जाओ कचनार
मैं
ओस की बूंद बनता
हूं
आओ
मिलकर एक साथ
प्रार्थना
करते हैं
अजीब
सी हो गई इस
पृथ्वी के पक्ष में।
X
X X X
एक
कदम तुम चलो
मैं
चलता हूं एक कदम
आओ
अपनी हथेलियों के
बीच
खिल
जाने दें एक गुलाब
इस
निर्मम समय के खिलाफ।
कवि पृथ्वी
पर व्याप्त इस विपरीत
माहौल से लड़ता हुआ
जहां एक ओर वह
इस निर्मम समय में ‘गुलाब’ के
रूप एक आदर्श समय
की कल्पना करता है
तो वहीं दूसरी ओर
वह उत्तर आधुनिकता और
बाज़ारवाद के शिकार मनुष्य
के प्रति भी चिंतित
नज़र आता है। आज
जब हर तरफ़ एक ‘रेस’ चल
रही है, बाजार की
आंधी सब कुछ खत्म
कर रही है तथा
मनुष्य तेजी से उस
बाज़ार और रेस का
हिस्सा बनता जा रहा
है तो इस स्वार्थ
लोलुप समय को ‘इस दुनिया
की तरह’ शीर्षक कविता
में चित्रित करता हुआ
कवि कह उठता है –
आज
जो दिखता
वह
अंधी दौड़
किसे
किसकी फ़िकर
भागते
लोग बेतहाशा स्वयं में
सिमटे
ऐसे
सपनों की गठरी कांधे
पर लटकाए
जिनका
दुनिया से नहीं कोई
सरोकार।
‘एक स्त्री
के नाम सदियों पुराना
प्रेमपत्र’ स्त्री विमर्श को
लेकर आगे बढती है
जिसमें आज की उन
महिलाओं की ज़िन्दगी का
चित्रण है जो अपने
घरों से दूर एक
अजनबी शहर का हिस्सा
बन चुकी है, जिन्होंने शहर
को तो अपना लिया
है लेकिन उस शहर
ने उन्हें अब तक
नहीं अपनाया। यहां कवि
एक नया समाजशास्त्र रचता
नज़र आता एक ऐसा
समाजशास्त्र जहां स्त्रियों ने
अपने घर की दहलीज
तो लांघ ली लेकिन
दहलीज रूपी लक्ष्मण रेख़ा
पार करने की सज़ा
उसे अब भी मिल
रही है –
वैसे भी
इस सांस्कृतिक देश
में
कम
नहीं रहे स्त्रियों के
दु:ख
और
तुम तो अपने आंगन
से दूर
रहती
हो एक अजनबी शहर
में।
थोड़ी और विस्तार से
चर्चा करने पर हम
पाते हैं किकवि इस
कठोर समय पर प्रहार
कर उसे खंड-खंड करने
के लिये ‘व्यंग्य’ का सहारा
लेता है जिसके दर्शन
हमें ‘वैसे भी इस
सांस्कृतिक देश में’ पंक्ति मे
नज़र आता है जहां
सस्कृति के नाम पर ‘अपसंस्कृति’
का विस्तार होता जा
रहा है और संकट
से कराहते इस समय
और इस मायावी दुनिया
को अतिक्रमण कर
कवि सम्मान की ख्वाहिश
रखता है।
इस संग्रह
के दूसरे भाग ‘बीच ढलानों
पर कहीं’ की कविताओं
में कवि की छटपटाहट
देखने को मिलती है।
कवि वर्तमान समय में
व्याप्त झूठे दावों के
बीच खुद को दबा
दबा सा महसूस करता
है और उस दबाव
से मुक्त हो खुल
कर कर सांस लेना
चाहता है और अपनी
कविताओं की ओर लौटना
चाहता है –
बंद
करो झूठे दावे
सामने
से हटो मुझे सांस
लेने दो मेरे दोस्त
मुझे
मत रोको अपने अभिनय
की उठान से
लौटने
दो मुझे अपनी अधूरी
कवितओं के पास।
बाज़ार के बढते प्रभाव
को
‘दरअसल’ कविता में व्यक्त
करते हुए कवि कहता
है
–
दरअसल
वह एक ऐसा समय
था
जिसमें
बाज़ार की सांस चलती
थी
इस बाज़ारू दौर में
कवि जिस यकीन के
साथ सच को अपने
साथ लेकर चला था
वह
‘यकीन’ शब्द अपना अर्थ
खो चुका है –
हम
एक ऐसे समय में
यकीन
एक चिड़िया सीने में
लिये घर से निकले
थे
जब
यकीन शब्द बेमानी हो
चुका था।
बाज़ार
के बढ्ते प्रभाव ने
जहां यकीन को ग्रस
लिया है वही बाज़ार
एक और उत्पाद के
साथ आ धमका है
जिसने मनुष्य के साथ-साथ
इस दुनिया को भी
मुट्ठी में कर लिया
है।
‘कर लो दुनिया मुट्ठी
में’
गढी गई बाज़ार की
इस परिभाषा ने एक
ऐसा दौर ला दिया
है जिसमें अजनबी आवाज़े
तेज़ होती जा रही
है और हमारा पीछा
कर रही है। इस
विकराल समय कवि खुद
को एक अंधी सुरंग
में धंसता महसूस कर
रहा है –
समय
के इस मोड़ पर
तेज़
होती जा रही हैं
अजनबी आवाज़े
बजता
है बार-बार एक
ही गीत
और बीच
इसके
मैं
तुम्हारी चुप हो गई
आवाज़ के साथ
गुम हो रहा
हूं हर रोज़
धंसता
जाता एक भयानक
और अंधी सुरंग
में।
और अंतत: इस संग्रह
में संग्रहित कविताएं,
प्रेम कविताएं प्रेम के
एक व्यापक अर्थ को
परिभाषित करती है। कवि
का यह प्रेम व्यक्तिगत
न होकर समष्टिगत है (आलोच्य
कविताओं के अनुसार) जिसके केन्द्र
में पूरी पृथ्वी, पूरा संसार, संसार
के लोग, उनका दु:ख, उनकी
पीड़ाएं, उन पीड़ाओं को
बढाने के लिये किये
जाने वाले हमले और
भी न जाने कितना
कुछ जो विमलेश त्रिपाठी
को समकालीन कवियों की
पंक्ति में एक अलग
स्थान दिलाती हैं। विमलेश
त्रिपाठी का यह संकलन
तपते रेगिस्तान में
बहती वह शीतल बयार
है जो रेगिस्तान की
तपिश को कम करती
है और उस बढ्ती
तपिश के कारकों की
पड़ताल करती है।
................................................राहुल शर्मा
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