Friday 25 September 2015

शहरी जीवन की व्यंग अभिव्यक्ति : कौआ कान ले गया

विवेक रंजन श्रीवास्तव का व्यंग संग्रह 90 के दशक के बदलते रंग-ढंग, रहन-सहन या उपभोगतावादी संस्कृति में तबदील होती नई पीढ़ी की दशा का सीधा-सरल किन्तु प्रभावशाली व्यंग्यात्मक विवरण प्रस्तुत करता है. इसमें वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के कारण देश में उस विकास की प्रक्रिया को समझने का मौका मिलेगा जिसमें आम आदमी की जेब देखी जाती है आदमी नहीं.

मोबाईल कम्पनियाँ उपभोगता को किस प्रकार प्रभावित करती हैं यह देखने लायक होता है. सैंकड़ों ऑफर उपभोगता को दिग्भ्रमित करते हैं- “मैंने पाया कि हर प्लान दूसरे प्लान से भिन्न है और चयन की यह प्रणाली कारगर नहीं है. हर विज्ञापन दूसरे से ज्यादा लुभावना है. मैं किंकर्तव्यविमूढ़ था. ऐसे सैंकड़ों विल्कपों वाले आकर्षक प्लान के निर्माताओं, नव युवा एम.बी.ए. पास, मार्केटिंग मैनेजर की योग्यता का में कायल हो गया था.”

उपभोगता की चेतना का निर्माण सिर्फ मोबाईल कम्पनियाँ ही नहीं करती बल्कि आज की मीडिया भी आम जनमानस को मुद्दों से दूर कर रही है. किडनी चोर की खबर को चैनल पर ‘सबसे पहले’ ब्रेकिंग न्यूज बना दिया जाता है. इस पर विवेक रंजन का व्यंग देखिए और व्यंग की मार- “मैं मीडिया की तत्परता से अभिभूत हूँ. आशा है ऐसे प्रेरणादायी समाचार से देश के बेरोजगार युवक, बीमार अमीर लोगों हेतु किडनी जुटाने की इस नये व्यवसाय को अपनाने के सेवा कार्य में अपने लिए रोजी-रोटी की तलाश की सम्भावना का अध्ययन अवश्य ही करेंगे.”

आज के तथा कथित संसदीय नेताओं का ही नहीं छुटभैया नेताओं का चरित्र-चित्रण इस व्यंग में बखूबी दिखाया गया है. “स्थानीय नेता जी हर चुनाव से पहले फाटक की जगह ओवरब्रिज का सपना दिखा कर वोट पा जाते हैं. लोकल अख़बार को गाहे बगाहे फाटक पर कोई एक्सीडेंट हो जाये तो सुर्खियाँ मिल जाती हैं.”

आज देश में अस्मिता की राजनीति हो रही है. आरक्षण की माँग अब दलित, महादलित या गरीब ही नहीं वे जातियाँ भी कर रही हैं जो धन-सत्ता में पहले से ही सम्पन्न हैं. विवेक ने इस सत्ता लोभी राजनीतिक चालबाजी को अपने व्यंग में जगह देकर अच्छे-अच्छे की बोलती बंद कर दी है. “मेरा अभिमत है कि समाज के प्रत्येक वर्ग को अनुसन्धान कर स्वयं को सबसे ज्यादा पिछड़ा सिद्ध करने के लिए तथ्य जुटा कर ठीक चुनाव से पहले अभूतपूर्व आन्दोलन कर दलित, पतित, पिछड़ा, अनुसूचित जनजातीय वगैरह घोषित करवा लेना चाहिए.”

भारत का अघोषित राष्ट्रीय खेल क्रिकेट अब बाजार के हवाले है. खिलाड़ी बिके और देश की जगह अब कम्पनी के लिए खेलना मतलब सिर्फ पैसा ही सब कुछ है. व्यंगकार विवेक लिखते हैं “इस हमाम में सब नंगे हैं, वरना बिकते तो पहले भी थे. लेकिन आज इनकी बोली लगाने का मूल्यांकन ठीक नहीं. खिलाड़ियों से देशवासियों का भावात्मक लगाव के कारण इस खेल को देखने में लगने वाले समय की कीमत भी उन्हें मिलनी चाहिए.”

आभासी दुनिया लोगों के व्यक्तित्व निर्माण में अहम्, मैं, घमंड व्यक्तिवाद जैसी प्रवृत्तियों को भी जन्म दे रही है. नाना प्रकार की वर्चुअली दिमागी बीमारी धीरे-धीरे नव साहित्यकारों को अपनी गिरफ्त में ले रही है. विवेक ने इंटरनेट की नब्ज को बड़ी ही सूक्ष्मता से पहचाना है- “मैं हर सुबह उत्साहपूर्वक माउस क्लिक करता हूँ, मुझे आशा होती है कि कुछ सम्पादकों के स्वीकृति पत्र होंगे, और जल्द ही मैं एक ख्याति लब्ध व्यंगकार बन जाऊँगा, पत्र-पत्रिकाएँ मुझसे भी अवसर विशेष के लिए रचनाओं की माँग करेंगी.”

देश के कुछ लोग बौद्धिक दिवालियेपन की राह पर चल रहे हैं. वे वीरो, महापुरुषों और ईश्वर तक को जाति विशष से सम्बन्धित करने की कौशिश में लगे हैं. इतिहास से उन महामानवो को खोजा जा रहा है जो जाति विशेष के खाचे में फिट हो सकें. शायद वे लोग कुछ हदतक सफल भी हुए. और भगवान कृष्ण जो वैश्विक हैं, वे इन दिनों मेरे मोहल्ले के यादव समाज के द्वारा धर लिए गये हैं.

हिन्दी साहित्य में आत्मकथा का बाज़ार काफी बड़े पैमाने पर फ़ैल रहा है. इससे लेखक, प्रकाशक एवं राजनीति चमकाने वाले भी बहती गंगा में नहाकर पवित्र हो जाते हैं और विवादों से मुनाफा कमाते हैं. आत्मकथाओं के उस तीसरे पन्ने को खोलने की कोशिश व्यंगकार ने बहुत बेबाक तरीके से की है. “ पहले थोड़ा सा खुद को चमकाईये, फिर अपनी डायरी को आधार बनाकर 5-10 वर्षों बाद लिख डालिए आत्मकथा.”

आज के दौर में अफवाहों का बाजार गर्म है. वह जोर-शोर के साथ भारतीय पटल पर सामने आया है. इन अफवाहों ने  देश में सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं सांकृतिक एकता को खंडित कर रही है. कौआ कान ले गया बड़ा ही रोचक व्यंग है– “ जैसे ही किसी ने कहा कि कौआ कान ले गया भीड़ बिना कान चेक किये ही कान ले जाने के विरोध में धरने, आन्दोलन, प्रदर्शन करती है.”

कहने के लिए तो यह व्यंग संग्रह है लेकिन पढ़ते जाने पर आपको लगेगा कि यह हमारे सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक ताने-बाने की वह गाथा है जो निरंतर बदल रही है और यह परिवर्तन समाज के लिए अच्छे संकेत नहीं.

महापुरुषों का निर्माण, अँधेरा कायम रहे, फंदा उलटा बन्दा सीधा जैसी व्यंग रचनाएँ हमारे समय से संवाद करने में हमारी मदद करेंगी.

विवेक रंजन ने अपनी व्यंग शैली का निर्माण देशकाल एवं कथा के साथ निरंतर विकसित किया है जिससे उनके व्यंग में संवेदना, संवाद और यथार्थ का जीता जागता चित्रण आसानी से मिल जाता है.


समीक्षक : एम. एम. चन्द्रा

कौआ कान ले गया : विवेक रंजन श्रीवास्तव, प्रकाशक : सुकीर्ति प्रकाशन : कीमत : 60, पेज : 96 

4 comments:

  1. चन्द्रा जी अच्छा लगा आपने आद्योपांत पढ़कर ही वास्तविक समीक्षा की है । प्रस्तुति हेतु पुस्तक समीक्षा का साधुवाद

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  2. चन्द्रा जी अच्छा लगा आपने आद्योपांत पढ़कर ही वास्तविक समीक्षा की है । प्रस्तुति हेतु पुस्तक समीक्षा का साधुवाद

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