
हिन्दी कविता में राजनीतिक विषयों पर काफी लिखा गया है। एक दौर था जब हर
कवि राजनीति पर लिखना अपना धर्म मानता था। लेकिन कुछ कवियों को छोड़ दें तो हिन्दी
में राजनीतिक कविता के प्रति पाठकों का आकर्षण कम होता चला गया, क्योंकि ज्यादातर
कविताएं राजनीतिक नारेबाजी बन कर रह गईं। सरला जी की कविताओं में कहीं भी नारेबाजी
जैसी बात नहीं है, बल्कि उस यथार्थ का
उद्घाटन है जो रोज़-ब-रोज़ की हमारी ज़िन्दगी में शामिल है, फिर भी हम उसे समझ
नहीं पाते। सरला जी की कविताओं में वह यथार्थ परत-दर-परत इस रूप में खुल कर सामने
आता है कि जटिल अंतर्जाल में भी हम उसकी बारीक रेखाओं को आसानी से देख लेते हैं। 'कार्ल मार्क्स के 198वें जन्मदिवस पर', 'नारायण काँबले', 'मन की बात', 'स्टिंग', 'अक्सर ऐसा ही होता
है', 'है कोई जवाब', 'कश्मीर', 'नेता : 'समाधिस्थ'', 'रेहाना जेब्बारी', 'हत्यारे' आदि ऐसी ही कविताएं
हैं, जिनमें राजनीतिक
अर्थबोध की कई परतें हैं। उनमें यथार्थ जटिल और संगुंफित है। 'हत्यारे' कविता पर विमल
वर्मा ने बिल्कुल सही लिखा है - "सरला माहेश्वरी ने कविता के माध्यम से 'सफेदपोश हत्यारों' यानी पूंजीवादी
व्यवहार जगत के विशिष्ट एजेंटों के वर्ग चरित्र को उद्घाटित किया है कि कैसे ये
वस्तु के, यथार्थ के वास्तविक
चरित्र को छिपाते हुए उसे विलोम रूप में आभासित करते हैं...काव्यात्मक संरचना में
प्रतिरोध, संघर्ष, नवनिर्माण का
आविर्भाव इतिहास की गत्यात्मकता से हमें जोड़ता है।" इतिहास की गत्यात्मकता
से यह जुड़ाव सरला जी की हर कविता में दिखाई पड़ता है जो उनके रचना-कर्म को
विशिष्ट बनाता है।
संग्रह में कई कविताएं व्यक्तियों पर लिखी गई हैं। 'लेसली उडविन', 'मुक्तिबोध', 'राजेन्द्र धोंदू
भोंसले', 'प्रेमचंद', 'बी.टी.आर.', 'तुम अग्निबीज
(डिरोजियो की याद में)',
'देवीराम', 'बुलिया काका' ऐसी ही कविताएं
हैं। प्रसिद्ध लोगों के साथ साधारण लोग पर कविताएं लिख कर सरला जी ने जीवन की बड़ी
विडम्बनाओं को सामने लाया है। सरला जी की कविताओं में व्यंग्य के तल्ख़ स्वर भी हैं। 'हठवाणी' ऐसी ही कविता है।
इस कविता को पढ़ने के बाद बाबा नागार्जुन की याद आ जाना स्वाभाविक है। इस कविता का
मारक व्यंग्य तिलमिला कर रख देने वाला है।
अडवाणी जी! अडवाणी जी!
कैसी यह हठवाणी जी
बाहर लटका, भीतर खटका
उठा धर्म को पटका जी।
ईटों को पूजा, नोटों को सटका
दिया राम को झटका जी।
ऐसी कविताएं आज के दौर में कम ही लिखी गई हैं। सिर्फ यही नहीं, संग्रह में ऐसी कई
कविताएं हैं, जिनमें लोक तत्व
प्रमुखता से उभर कर सामने आता है। सरला जी का जुड़ाव हमेशा जनसंघर्षों से रहा है।
यही कारण है कि उनकी कविताओं में उस सच का बयान है, जो उन कवियों में नहीं मिलता जो ड्राइंगरूम में
बैठकर कविता रचते नहीं, बल्कि गढ़ते हैं।
हिन्दी कविता में जुमलेबाजी का एक लम्बा दौर रहा है और राजनीतिक कविता के नाम पर
जुमलेबाजी चलती रही है। सरला जी की कविताएं सहज और सम्प्रेषणीय हैं तो सिर्फ इसलिए
कि उनमें कहीं कोई राजनीतिक जुमला नहीं, बल्कि यथार्थ है।
सरला जी की कविताओं में नारी-मुक्ति के नये स्वर भी मिलते हैं। 'सेवया की औरतें', 'इस प्यार को मैं
क्या नाम दूँ', 'एक अकेली औरत का
होना', 'तस्लीमा नसरीन की
आत्मकथा...', 'औरतें' ऐसी ही कविताएं हैं, जो स्त्री-जीवन की
विडम्बना को सामने लाते हुए उनकी मुक्ति का आकांक्षा को नये स्वर देती हैं।
संकलन में कुल 90 कविताएं हैं।
बार-बार पढ़ने के लिए ये कविताएं पाठक को मजबूर कर देंगी। ज्यादातर कविताएं लयात्मक
हैं। एक आंतरिक लयात्मकता हर कविता में मौजूद है, जो इसे लोक से जोड़ती है। इन कविताओं का प्रकाश
में आना हिन्दी साहित्य में एक सुखद घटना है। संकलन की भूमिका में उद्भ्रांत ने सच
लिखा है - "आसमान के घर की खुली खिड़कियाँ के माध्यम से कवयित्री ने हिन्दी
काव्य जगत के द्वार पर प्रभावी दस्तक दी है। यह संग्रह इसलिए भी अलग से पहचाना
जाएगा, क्योंकि इसमें
कवयित्री ने समसामयिक सामाजिक-आर्थिक इतिहास को रच दिया है, जहां
दलित-शोषित-प्रताड़ित के प्रति पक्षधरता है, स्त्री विमर्श है और इस सबको काव्य के सांचे में ढालने वाली लयात्मकता
है।" निश्चय ही, यह संकलन
काव्य-प्रेमियों के साथ-साथ आम पाठकों के बीच भी अपनी जगह बनाएगा।
समीक्षक - वीणा भाटिया
पुस्तक - आसमान के घर की खुली खिड़कियाँ (कविता संकलन)
प्रकाशक - सू्र्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर
मूल्य - 300 रुपए
प्रकाशन वर्ष – 2015
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Email-
vinabhatia4@gmail.com
Mobile
no. 9013510023
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