Sunday 21 February 2016

शून्य की अस्मिता का सवाल-आठवाँ रंग@पहाड़ गाथा -गोविन्द सेन

 प्रदीप जिलवाने का उपन्यास-आठवाँ रंग@पहाड़ गाथा-शून्य समझे जाने वाले पहाडों पर रहने वाले आदिवासी जन के अपने अस्तित्व को बचाए रखने के संघर्ष की जीवंत गाथा है. यह सात रंगों से भिन्न एक अलग काले-धूसर रंग की सजीव दास्तान है. उपन्यास के केंद्र में धर्म  है. उपन्यास धर्मान्तरण के सवाल से भी टकराता है. धर्मान्तरण केवल गरीब, वंचित और पिछड़े वर्ग को ही क्यों करना पडता है ? यहाँ उन कारणों को  खोजा गया  है जिनके कारण आदिवासी अपना धर्म बदलने पर विवश होता है.  हर धर्म आदिवासी का उपयोग करना तो चाहता है किन्तु उसे अपनाना नहीं चाहता. उसे उसका इंसानी हक नहीं देना चाहता. धर्म का पहिया उसकी गरदन पर से गुजर रहा है. आदिवासी का धर्म उसके पहाड़, उसकी नदिया और उसके जंगल हैं जो उससे लगातार छीने जा रहा है. उसे अपनी जमीन से खदेड़ कर  निहत्था और बेघर  किया जा रहा है. धर्म का जबड़ा उसे चबाकर अपने   अनुकूल बना लेना चाहता है ताकि उसे निगलकर पचाया  जा सके. पहाड़, नदी और जंगल आदिवासी जीवन का अटूट हिस्सा ही नहीं उसका पर्याय हैं. आदिवासी जन प्रकृति के  साथ ही हँसते और उसी के साथ रोते हैं. जंगल, पहाड़ और नदी उनके सगे हैं. उनके आत्मीय हैं. उपन्यास  का प्रारंभ  कविता से होता है जिसमें शून्य के संकट और उसके महत्व को चित्रित किया गया है. इसकी पहली गद्य पंक्ति है-मुझे इन दूर-दूर तक फैले पहाड़ों से प्यार है. आदिवासी सच्चे पहाड़-पुत्र हैं. आदिवासी जितना पहाड़ों से प्यार करते हैं उतना ही पहाड़ भी उनसे प्यार करते हैं. पहाड़ उन्हें भूखा नहीं सोने देते. यदि ये पहाड़ नहीं बचते हैं तो  आदिवासी भी नहीं बचेंगे और न ही उनकी संस्कृति.

उपन्यासकार ने किसी भी धर्म को ख़ारिज किए बगैर मानवता और समानता को प्रतिष्ठित करने का सार्थक प्रयास किया है. पहाड़ आदिवासी जन के अन्तरंग हैं. वही उनका धरम है. प्रारंभ में ही दादा अपने पोते उपन्यास के मुख्य  नायक लच्छू को समझाते हुए कहते हैं-बेटा धरम का मतलब अच्छे काम करने के नियम. सबका भला करने रीत. जब लच्छू पूछता है कि क्या हम हिन्दू हैं तो दादा जवाब देते हैं-ये पहाड़ ही हमारा धरम है. ये जंगल ही हमारी जात है.

184 पृष्ठों में फैला यह उपन्यास लच्छू उर्फ लक्ष्मण उर्फ लारेंस उर्फ लतीफ़ खान के बहाने आदिवासी अस्मिता के सवाल को पुरजोर ढंग से उठता है. उपन्यास आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया है. धर्म को केंद्र में रखकर खरगोन और उसके आसपास के क्षेत्र के आदिवासी इलाके और उनके जनजीवन का सजीव चित्रांकन किया गया है.  

हर धर्म बाहर से भले ही घोषित करे कि हम सब एक हैं लेकिन भीतर पर्याप्त भेदभाव को  पनाह दिए रहता है. कमोबेश हर धर्म समानता की छाती पर बैठा मिलता है. मानवता का गला दबाता पाया जाता है. धर्म इंसान के भले के लिए बना होता है, लेकिन वह अन्ततः शोषणकारी भूमिका में आ जाता है. उपन्यास का मुख्य कथ्य यह  है कि आदिवासी अपना धर्म तो बदल सकता है लेकिन अपनी जाति नहीं बदल पाता. आदिवासी आखिर आदिवासी ही रहता है. वह न मुसलमान बन पाता है और न ही ईसाई. न हिन्दू ही उसे वह जगह देते हैं जिनके वे हक़दार हैं. भारत में जाति की जड़ें बहुत गहरी हैं. धर्म से मुक्ति संभव है, किन्तु जाति से नहीं.

लच्छू उर्फ लक्ष्मण उच्च शिक्षा पाना चाहता है. इसके लिए वह ईसाई धर्म ग्रहण  कर लेता है. लक्ष्मण से वह लारेंस बन जाता है. वह शहर में क्रिसचैन कॉलेज में पढ़ने लगता है. लेकिन धीरे-धीरे उसे समझ में आ जाता है कि आदिवासी से कन्वर्टेड ईसाई हैं और  ऊँचे दर्जे के ईसाई दोनों अलग-अलग हैं. तथाकथित ऊँचे दर्जे के ईसाई कन्वर्टेड ईसाई से बराबरी का व्यवहार नहीं करते, बल्कि उन्हें आदिवासी ही मानते हैं. शहर में आकर वह निकहत से प्रेम करने लगता है. निकहत भी उसे चाहती है. दोनों एक दूसरे से शादी करना चाहते हैं लेकिन धर्म आड़े आ जाता है. लक्ष्मण इस दीवार को भी  पार कर जाता है. मुस्लिम धर्म अपनाकर वह लारेंस से लतीफ़ खान बन जाता है. लक्ष्मण उर्फ लतीफ़ खान का रिश्ता लेकर जब एक गरीब लेकिन नेक  शिया मुसलमान बदरुद्दीन निकहत के अब्बू ररुफ़ बेग मिर्जा के पास जाते हैं  तो तैश में आकर मिर्जा साहब बदरू भाई को डाँटते हैं-‘‘तो क्या एक आदिवासी मुसलमान होने से हम मिर्जाओं के बराबर हो जायेगा? बदरुद्दीन साहब, आपका दिमाग तो नहीं फिर गया है, पिंजारे भी इनसे बेहतर होते हैं.’’

उपन्यास की भाषा सहज, सरल, प्रवाहपूर्ण, चित्रात्मक और चित्ताकर्षक है.
प्रदीप जी ने निमाड़ अंचल में प्रचलित  अनेक आंचलिक शब्दों जैसे वरसूद, हतई, पयड़ी, भलई, भोंगर्या आदि  का सहज प्रयोग कर  हिंदी के शब्द भंडार में अभिवृद्धि की  है. खूबी यह है कि इन देशज शब्दों के प्रयोग से सम्प्रेषण कहीं भी बाधित नहीं होता. पठनीयता का पूरा ध्यान रखा गया है. इन शब्दों के जरिए प्रदीप जी उस  विश्वसनीय संसार  की सृष्टि करते हैं जिसमें आदिवासी अपना जीवन गुजरते हैं.

उपन्यास में आदिवासी, आदिवासी से धर्मान्तरित ईसाई, हिन्दू और मुस्लिम पात्रों की एक भरी-पूरी बस्ती  है. प्रदीपजी ने इनके आपसी रिश्तों और  मनोभावों का सजीव चित्रण किया है.

नायक लच्छू के नीरू और निकहत से प्रेम प्रसंगों को प्रदीप जी ने उपन्यास ने बखूबी पिरोया है. उल्लेखनीय है कि इन प्रेम प्रसंगों के चित्रण में कहीं भी हल्कापन नहीं है  बल्कि एक गहराई और मर्मस्पर्शिता है. कट्टरपंथी युवकों को निकहत और लच्छू का प्रेम फूटी आँख नहीं सुहाता. वे लच्छू के साथ मारपीट करते हैं. उसे अपमानित कर बगीचे से भगा देते हैं. अक्सर  इस तरह की घटनाएँ धर्म और संस्कृति की रक्षा के बहाने घटती ही रहती है. बाबरी मस्जिद की घटना हो या धर्म से जुड़ी कोई अन्य घटना हो,  प्रदीप जी के इस उपन्यास में पृष्भूमि के रूप में मौजूद है.

उपन्यास में अनेक स्थानों पर धर्म की व्याख्या की गई है. धर्म को अनेक कोणों से देखा परखा गया है. हर धर्म धर्मिक पुस्तकों, देवताओं और पैगम्बरों के खम्बों पर खड़ा होता है. इंसान ने अपने दुखों से निजात पाने के लिए ईश्वर की खोज की होगी. प्रदीप जी ने यहाँ एक मौलिक विचार रखा है कि समय को किसी धर्म में देवता नहीं माना है जबकि समय ही सबसे बड़ा देवता है. किसी भी  धर्म में समय की कोई पूजा विधि नहीं है.

अयोध्याबाबू जैसे लोग पंचायत में आदिवासी को मिलने वाले अवसर को किस तरह अपने लाभ के लिए भुना लेते हैं, उपन्यास में इसे भी बखूबी चित्रित किया है. अयोध्याबाबू नायक के पिता अनारसिंग का उपयोग अपने लाभ के लिए करते हैं.
अनारसिंग केवल अंगूठा लगाता है, असली सरपंची करते हैं अयोध्याबाबू. उनकी करतूतों के कारण ही अनारसिंग जेल में पहुँचता है.

अनारसिंग के जेल में जाने से उसका पूरा परिवार ही नहीं, पूरा फल्या मातम में डूब जाता है. फल्या भोंगर्या नहीं मनाता. पूरा जंगल शोकाकुल है. जो पहाड़ पलाश के फूलने के गीत गाता था, अब शोकगीत गा रहा था. माँदल किसी बीमार वृध्द की भाँति अकेलेपन का दुःख भोग रहा था. यहाँ प्रदीपजी ने निर्जीव चीजों को भी सजीव रूप में चित्रितकर कमाल कर दिया है.


इनके जब कोई कवि कविता से कथा के क्षेत्र में प्रवेश करता है तो अपने साथ कविता की छाया भी लाता है. चूँकि प्रदीप जिलवाने एक सिद्धहस्त कवि हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से इस कृति में भी भरपूर काव्यात्मकता का समावेश हुआ है. यही कारण है कि उपन्यास का प्रारंभ ही कविता से होता है. उपन्यास को चार भागों में बाँटा जा सकता  है. पहले भाग में  दुरसिंग के फल्ये में लच्छू उर्फ लक्ष्मण की कहानी है. यहाँ फल्येवालों आदिवासियों को एक नेतानुमा  तिलकधारी समझाता है कि हम हिन्दू हैं और हमें साले ईसाइयों के झाँसे में नहीं आना है. उपन्यास के दूसरे  भाग में लक्ष्मण बपतिस्मा के बाद नया नाम लारेंस पाता है. तीसरे भाग में लारेंस के मुस्लिम धर्म ग्रहणकर लतीफ़ खान बन जाने की कहानी है. अंतिम भाग में वह वापस अपने पहाड़ों पर लौटकर आ जाता है. उपन्यास का समापन  एक सकारात्मक प्रतिरोध से होता है. वह पहाड़ों को बचाने की मुहीम में सावित्री बेन, अपने युवा साथियों और नीरू के साथ जुट जाता है.
उपन्यास का यह छोटा सा भाग बहुत महत्वपूर्ण है. हर भाग से पहले सार्थक काव्य पंक्तियाँ हैं, बल्कि कहना चाहिए कि एक कविता से उपन्यास के चारों भाग मजबूती से जुड़े हैं. अंतिम भाग की काव्य पंक्तियाँ बहुत सार्थक, रेखांकित करने योग्य हैं और वाजिब सवाल भी उठाती हैं- शून्य है तो क्या / शून्य सिर्फ शून्य ही रहेगा अंत तक. इस भाग में नायक घोषित करता है-मैं किसी लक्ष्मण डावर को नहीं जानता. मैं किसी लारेंस को नहीं पहचानता. मैं किसी लतीफ  खान से वाकिफ नहीं हूँ. मैं लच्छू हूँ, मेरा पूरा नाम लच्छू पहाड़ है. मेरे पिता का नाम अनारसिंग पहाड़ है. मेरे दादा का नाम दुरसिंग पहाड़ है.

यहाँ नायक सपना देखता है कि केसरिया में हरा घुल रहा है. हरे  में नीला घुल रहा है. नीले में लाल रंग घुल रहा है. सारे रंग घुल-मिलकर एक नए रंग का सृजन कर रहे हैं. जैसे सूर्य की किरणों में सात रंग होने के बावजूद वह हमें किसी आठवें रंग में दिखती है.
शायद यही उपन्यासकार का  आठवाँ रंग है जिसे वह धरती पर फैलते हुए देखना चाहता है. नायक एक और सपना देखता है कि धर्महीन होते ही दुनिया पवित्र हो गई है. जातिहीन होते ही लोगों के मन में एक-दूसरे के लिए सम्मान बढ़ गया है. रंग और भाषा को लेकर लोगों के मन में एक दूसरे के लिए कोई घृणा नहीं है, बल्कि प्यार और सम्मान है.

निश्चय ही यह उपन्यास में अतीत और वर्तमान के  काले पृष्ठ हैं और उजले भविष्य  सपने हैं. युवा उपन्यासकर  को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ.



-गोविन्द सेन, राधारमण कालोनी, मनावर जिला-धार [म.प्र.] पिन 454446 मोब.09893010439 

No comments:

Post a Comment