Wednesday, 24 February 2016

गजल संग्रह : हर घर में उजाला जाए -प. अरविन्द त्रिवेदी:समीक्षक - संजय वर्मा "दृष्टि "



जनमंचों पर अपनी साहित्य विधा के हर रंग का जादू बिखेरने वाले वरिष्ट कवि प. अरविन्द त्रिवेदी "सनन " यूँ तो जन -जन में लोकप्रिय है उतनी ही उनकी धार्मिक एवम साहित्यिक  कर्म में रूचि अम्बर को छू रही है । स्वयं को बड़ा कभी न महसूस समझने वाले प. अरविन्द त्रिवेदी "सनन " का सहयोग की भावना का एक नया रूप और मंशा  गजल संग्रह में स्पष्ट झलकती है । गजल संग्रह के शीर्षक से ही हमें इस बात का पता चलता है कि -"हर घर में उजाला जाये "सच मुच  आपने अपने विद्वान् पिता नाम तो रोशन किया ही है साथ ही महाकाल नगरी के अलावा प्रदेशों में भी अपनी पहचान के झंडे गाड़े है ।  सरस्वती वंदना में आप के स्वर कानों में मिश्री घोलते वही काव्य रसिकों को शब्दों के चुम्बकीय आकर्षणता  में बांध कर एक नई  उर्जा का संचार कर देते है । इस कला की जितनी भी प्रशंसा  की जाये  उतनी कम होगी। 
वर्तमान हालातों पर गजल की सटीक पक्तियाँ कुछ यू बयां करती है -"ये गीत और भजन तो है टी वी डूबा गई /सुनसान सनन कह रहा चोपाल देखकर " । निराशा को दूर करने का मूलमंत्र भी दिया है-  "यूँ  हार  कर के मोंत का दामन न थामिये /हर इक समस्या का है समाधान जिन्दगी " ।सनन की सोच काफी गहराई वाली है - "जिसकी सूनी आँखे सब कह जाती है /वह बच्चा भी मुझको शायर लगता है  "
जन जन में लोकप्रिय वरिष्ट कवि प. अरविन्द त्रिवेदी "सनन " का नाम ही काफी है । लोगो से उन्हें असीम प्यार मिला है और यही बात गजल  में भी दिखलाई पड़ती है -"मेने प्यार पाया है महफिलों में लोगों से /वर्ना मेरी जिन्दगी तो जिन्दगी नहीं होती "वही धर्मनिरपेक्षता  का पुनीत सन्देश दिया है - "भाई चारा बढता है मिलने और मिलाने से /कबूतर उड़ाने से शांति नहीं होती " । प्रेम की कशिश को गजल की  में बेहतर तरीके से ढाला है -जब जब तेरी याद के बादल छाते है /आँखों में बारिश का मोसम होता है " व्  " तेरी गजल दिल की बात कहती है /तेरी बातों में कितना दम होता है " मालवी बोली की मिठास की पूरी दुनिया कायल है नशा मुक्ति का सन्देश हास्य रस में गजब दिया -" घर से चल्या था बन के वी लाड़ा बजार में /पीके  वी दारू अब पड्या आडा बजार में " सनन जी की हर गजल दमदार है  और दिल को छू  जाने वाली है यकीं न होतो इन पंक्तिओं पर तनिक गोर फरमाए -"में सुबह जागूं या कोई है जगाता मुझकों /न उठूँगा तो फिर आयेंगे उठाने वाले "। हर घर में उजाला जाये १००% दिलों में जगह बनाएगी इसमें कोई शक नहीं है। हमारी यही शुभकामनाये है ।
गजलकार -प. अरविन्द त्रिवेदी "सनन "
प्रकाशक -शब्द प्रवाह साहित्य मंच                                     संजय वर्मा "दृष्टि "
                ए /99 , व्ही। डी.मार्केट                              125 .शहिद भगत सिंग मार्ग
            उज्जैन (म प्र ) 456006                                    मनावर जिला -धार      
  मूल्य -  195 /-रूपये  

अँधेरे का मध्य बिंदु -वंदना गुप्ता : समीक्षक- डॉ. संगीता स्वरूप

" अँधेरे  का  मध्य  बिंदु " वंदना गुप्ता  का प्रथम उपन्यास  है । मूल रूप से उनकी  पहचान  कवयित्री के रूप में  रही और फिर उन्होंने  अपनी क्षमता का लोहा अन्य विधाओं में भी मनवाया । अनेक  कहानियां  लिखीं और  पुस्तकों की  समीक्षा  भी करी । लेकिन  इतने  कम  समय में उनका एक उपन्यास  आ  जाना निश्चय  ही उनकी क्षमता को दर्शाता  है ।  कवयित्री  के  रूप  में भी  इन्होंने  अनेक  कवितायेँ ऐसे विषय  पर लिखीं  हैं जिन पर  कलम चलाने  का साहस विरले ही  करते  हैं । और  अब  उपन्यासकार  के रूप में भी एक  ऐसे  विषय को  लिया है जिसे आमतौर पर  समाज  सहज स्वीकार  नहीं  करता । यूँ तो लिव इन रिलेशनशिप  आज  अनजाना  विषय  नहीं  है  लेकिन  फिर भी  इसे सहज स्वीकार  नहीं किया  जाता । जहाँ तक  आम लोगों की  सोच  है  ऐसे रिश्तों  को अधिक  महत्त्व  नहीं दिया जाता जहाँ कोई प्रतिबद्धता  न हो । लेकिन  आज  की पीढ़ी  विवाह  के  बंधनों  में जकड़  कर  अपनी स्वतंत्रता को खोना  नहीं  चाहती ।  
        वंदना  ने  इसी विषय  को मूल में रख  उपन्यास की रूपरेखा बुनी  है । इनके  नायक और  नायिका  अपने लिव इन  रिलेशनशिप के रिश्ते  में  अधिक  प्रतिबद्ध  दिखाई  देते हैं । प्रेम  विश्वास  और स्पेस  ये तीन चीज़ें ऐसी हैं जो  अंत तक  नायक  नायिका को आपस में जोड़े  रखती हैं ।  यदि यही तीनो बातें किसी वैवाहिक जोड़े की ज़िन्दगी में हों तो उनकी ज़िन्दगी भी सुकून से भरपूर  हो । विवाह  के  पश्चात  स्त्री और  पुरुष  दोनों की ही  एक दूसरे  से अपेक्षाएं इतनी बलवती  हो जाती  हैं  कि वो एक दूसरे  पर अपना  अधिकार  जमाने  लगते  हैं । धीरे धीरे इस रिश्ते में कटुता  आ जाती है । वंदना  के  नायक  नायिका  जानते हैं कि उनका  रिश्ता  बहुत  नाज़ुक  है इस लिए वो एक दूसरे से अपेक्षाओं  के बजाये एक दूसरे के प्रति  समर्पित  रहते हैं । इस  उपन्यास  को  पढ़ कर  एक  बात तो स्पष्ट  है कि इस  तरह के रिश्तों  में आपस में अधिक वचनबद्धता  की आवश्यकता है । 
           लेखिका  ने इस  उपन्यास में  जहाँ  लिव इन रिलेशन  के रिश्ते को खूबसूरती से एक ख़ुशगवार  रिश्ता  बुना  है  वहीँ  इस तरह के रिश्तों  के भीषण दुष्परिणामों  से  भी अवगत  कराया है । दीप्ती के पिता के साथ होने वाले संवाद ऐसे रिश्तों के दुष्परिणामों  पर रोशनी डालते हैं ।  स्त्री विमर्श  को  भी  नायिका  शीना के  संवाद  द्वारा  लेखिका ने  स्पष्ट किया है  कि मात्र पुरुष विरोधी सोच  नहीं होनी चाहिए । सही और गलत का निर्णय सोच  समझ  कर लिया  जाना  चाहिए । 
            छोटे  छोटे  गाँव  में आज  भी  चिकित्सा  की  उचित सुविधाएँ  नहीं  हैं इस  पर भी लेखिका की  कलम चली है जिसके परिणामस्वरूप  नायिका शीना  एच आई वी की शिकार  हो  जाती  है ।ऐसे  कठिन दौर से गुज़रते  हुए भी नायक रवि  अपने रिश्ते को  बखूबी निभाता  है ।आपस में न तो कोई अनुबंध था और न ही कोई सामाजिक दबाव फिर भी दोनों एक दूसरे के प्रति पूर्णरूपेण एक दूसरे के प्रति समर्पित थे |पूरे  उपन्यास में नायक  नायिका  का रिश्ता एक दूसरे  पर बोझ  प्रतीत नहीं होता । यही इस उपन्यास के कथानक की सफलता है ।
          एक आलोचक  की दृष्टि से देखा  जाए तो कहीं कहीं लेखिका  ने  घटनाओं को समेटने में थोड़ी शीघ्रता दिखाई है । और एक प्रकरण जहाँ रवि ( नायक )  अपने लिव इन रिलेशनशिप के रिश्ते के लिए अपने  माता पिता से बात करने अनूपशहर  जाता  है । घर पहुंचने के लिए गली में प्रवेश भी कर लेता है और कुछ  जान पहचान वालों से दुआ  सलाम  भी हो जाती  है । यहाँ तक कि सुमन चाची की बेटी  रवि भैया आ  गए यह कह कर घर की ओर दौड़ भी जाती  है ,उसके बाद  गंगा  नदी पर रवि का  पहुँचना  और अपने अशांत मन को शांत करने में समय बिताना मेरी दृष्टि से उचित नहीं था ।क्योंकि एक तो वो माता पिता को बिना सूचना दिए आया था और उसके आने की खबर यदि किसी अन्य  व्यक्ति से उनको मिल जाती तो वो उसके देर से घर पहुँचाने से अत्यधिक चिंतित हो  उठते ।  यही प्रकरण यदि शहर पहुँचने  से पहले आता तो मेरी दृष्टि से शायद ज्यादा उचित होता । संध्या की भूमिका का भी कुछ ज्यादा  औचित्य  नहीं  लगा फिर भी शायद लेखिका नायक के चरित्र  की दृढ़ता  को पाठक  तक  पहुंचाना  चाहती थीं । जिसमें वो सफल भी रहीं ।
      कुल मिला  कर ये उपन्यास आज की युवा पीढ़ी  के लिए ही  नहीं वरन  हर  दम्पति के लिए प्रेरणास्रोत  है । आपस के रिश्तों  का किस तरह से निर्वाह किया जाना  चाहिए और किस तरह एक दूसरे के प्रति सम्मान और प्रेम की भावना ही किसी रिश्ते को मजबूती प्रदान  करती  है ये बात लेखिका ने बड़ी कुशलता से समझायी है । भाषा  बहुत सहज सरल और  ग्राह्य  है । सबसे  बड़ी बात कि  कहीं भी  कथानक की रोचकता  गायब नहीं होती और  न ही कहीं उबाऊ उपदेश प्रतीत  होते हैं । 
इस उपन्यास के लिए  जो उनका पहला प्रयास है लेखिका निश्चय  ही  बधाई की पात्र  हैं। पुस्तक का आवरण  और  कलेवर आकर्षक है . 

इसके लिए  प्रकाशक बधाई के पात्र हैं . 
         लेखिका  को मेरी  शुभकामनाये। आने  वाले  समय में उनके और उपन्यासों  का इंतज़ार  रहेगा |




पुस्तक  का नाम -   अँधेरे  का  मध्य  बिंदु 

लेखिका --- वंदना गुप्ता 

प्रकाशक --एपीएन  पब्लिकेशन 
संपर्क --9310672443
apnlanggraph@gmail.com

ISBN No ---978-93-85296-25-3

Sunday, 21 February 2016

शून्य की अस्मिता का सवाल-आठवाँ रंग@पहाड़ गाथा -गोविन्द सेन

 प्रदीप जिलवाने का उपन्यास-आठवाँ रंग@पहाड़ गाथा-शून्य समझे जाने वाले पहाडों पर रहने वाले आदिवासी जन के अपने अस्तित्व को बचाए रखने के संघर्ष की जीवंत गाथा है. यह सात रंगों से भिन्न एक अलग काले-धूसर रंग की सजीव दास्तान है. उपन्यास के केंद्र में धर्म  है. उपन्यास धर्मान्तरण के सवाल से भी टकराता है. धर्मान्तरण केवल गरीब, वंचित और पिछड़े वर्ग को ही क्यों करना पडता है ? यहाँ उन कारणों को  खोजा गया  है जिनके कारण आदिवासी अपना धर्म बदलने पर विवश होता है.  हर धर्म आदिवासी का उपयोग करना तो चाहता है किन्तु उसे अपनाना नहीं चाहता. उसे उसका इंसानी हक नहीं देना चाहता. धर्म का पहिया उसकी गरदन पर से गुजर रहा है. आदिवासी का धर्म उसके पहाड़, उसकी नदिया और उसके जंगल हैं जो उससे लगातार छीने जा रहा है. उसे अपनी जमीन से खदेड़ कर  निहत्था और बेघर  किया जा रहा है. धर्म का जबड़ा उसे चबाकर अपने   अनुकूल बना लेना चाहता है ताकि उसे निगलकर पचाया  जा सके. पहाड़, नदी और जंगल आदिवासी जीवन का अटूट हिस्सा ही नहीं उसका पर्याय हैं. आदिवासी जन प्रकृति के  साथ ही हँसते और उसी के साथ रोते हैं. जंगल, पहाड़ और नदी उनके सगे हैं. उनके आत्मीय हैं. उपन्यास  का प्रारंभ  कविता से होता है जिसमें शून्य के संकट और उसके महत्व को चित्रित किया गया है. इसकी पहली गद्य पंक्ति है-मुझे इन दूर-दूर तक फैले पहाड़ों से प्यार है. आदिवासी सच्चे पहाड़-पुत्र हैं. आदिवासी जितना पहाड़ों से प्यार करते हैं उतना ही पहाड़ भी उनसे प्यार करते हैं. पहाड़ उन्हें भूखा नहीं सोने देते. यदि ये पहाड़ नहीं बचते हैं तो  आदिवासी भी नहीं बचेंगे और न ही उनकी संस्कृति.

उपन्यासकार ने किसी भी धर्म को ख़ारिज किए बगैर मानवता और समानता को प्रतिष्ठित करने का सार्थक प्रयास किया है. पहाड़ आदिवासी जन के अन्तरंग हैं. वही उनका धरम है. प्रारंभ में ही दादा अपने पोते उपन्यास के मुख्य  नायक लच्छू को समझाते हुए कहते हैं-बेटा धरम का मतलब अच्छे काम करने के नियम. सबका भला करने रीत. जब लच्छू पूछता है कि क्या हम हिन्दू हैं तो दादा जवाब देते हैं-ये पहाड़ ही हमारा धरम है. ये जंगल ही हमारी जात है.

184 पृष्ठों में फैला यह उपन्यास लच्छू उर्फ लक्ष्मण उर्फ लारेंस उर्फ लतीफ़ खान के बहाने आदिवासी अस्मिता के सवाल को पुरजोर ढंग से उठता है. उपन्यास आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया है. धर्म को केंद्र में रखकर खरगोन और उसके आसपास के क्षेत्र के आदिवासी इलाके और उनके जनजीवन का सजीव चित्रांकन किया गया है.  

हर धर्म बाहर से भले ही घोषित करे कि हम सब एक हैं लेकिन भीतर पर्याप्त भेदभाव को  पनाह दिए रहता है. कमोबेश हर धर्म समानता की छाती पर बैठा मिलता है. मानवता का गला दबाता पाया जाता है. धर्म इंसान के भले के लिए बना होता है, लेकिन वह अन्ततः शोषणकारी भूमिका में आ जाता है. उपन्यास का मुख्य कथ्य यह  है कि आदिवासी अपना धर्म तो बदल सकता है लेकिन अपनी जाति नहीं बदल पाता. आदिवासी आखिर आदिवासी ही रहता है. वह न मुसलमान बन पाता है और न ही ईसाई. न हिन्दू ही उसे वह जगह देते हैं जिनके वे हक़दार हैं. भारत में जाति की जड़ें बहुत गहरी हैं. धर्म से मुक्ति संभव है, किन्तु जाति से नहीं.

लच्छू उर्फ लक्ष्मण उच्च शिक्षा पाना चाहता है. इसके लिए वह ईसाई धर्म ग्रहण  कर लेता है. लक्ष्मण से वह लारेंस बन जाता है. वह शहर में क्रिसचैन कॉलेज में पढ़ने लगता है. लेकिन धीरे-धीरे उसे समझ में आ जाता है कि आदिवासी से कन्वर्टेड ईसाई हैं और  ऊँचे दर्जे के ईसाई दोनों अलग-अलग हैं. तथाकथित ऊँचे दर्जे के ईसाई कन्वर्टेड ईसाई से बराबरी का व्यवहार नहीं करते, बल्कि उन्हें आदिवासी ही मानते हैं. शहर में आकर वह निकहत से प्रेम करने लगता है. निकहत भी उसे चाहती है. दोनों एक दूसरे से शादी करना चाहते हैं लेकिन धर्म आड़े आ जाता है. लक्ष्मण इस दीवार को भी  पार कर जाता है. मुस्लिम धर्म अपनाकर वह लारेंस से लतीफ़ खान बन जाता है. लक्ष्मण उर्फ लतीफ़ खान का रिश्ता लेकर जब एक गरीब लेकिन नेक  शिया मुसलमान बदरुद्दीन निकहत के अब्बू ररुफ़ बेग मिर्जा के पास जाते हैं  तो तैश में आकर मिर्जा साहब बदरू भाई को डाँटते हैं-‘‘तो क्या एक आदिवासी मुसलमान होने से हम मिर्जाओं के बराबर हो जायेगा? बदरुद्दीन साहब, आपका दिमाग तो नहीं फिर गया है, पिंजारे भी इनसे बेहतर होते हैं.’’

उपन्यास की भाषा सहज, सरल, प्रवाहपूर्ण, चित्रात्मक और चित्ताकर्षक है.
प्रदीप जी ने निमाड़ अंचल में प्रचलित  अनेक आंचलिक शब्दों जैसे वरसूद, हतई, पयड़ी, भलई, भोंगर्या आदि  का सहज प्रयोग कर  हिंदी के शब्द भंडार में अभिवृद्धि की  है. खूबी यह है कि इन देशज शब्दों के प्रयोग से सम्प्रेषण कहीं भी बाधित नहीं होता. पठनीयता का पूरा ध्यान रखा गया है. इन शब्दों के जरिए प्रदीप जी उस  विश्वसनीय संसार  की सृष्टि करते हैं जिसमें आदिवासी अपना जीवन गुजरते हैं.

उपन्यास में आदिवासी, आदिवासी से धर्मान्तरित ईसाई, हिन्दू और मुस्लिम पात्रों की एक भरी-पूरी बस्ती  है. प्रदीपजी ने इनके आपसी रिश्तों और  मनोभावों का सजीव चित्रण किया है.

नायक लच्छू के नीरू और निकहत से प्रेम प्रसंगों को प्रदीप जी ने उपन्यास ने बखूबी पिरोया है. उल्लेखनीय है कि इन प्रेम प्रसंगों के चित्रण में कहीं भी हल्कापन नहीं है  बल्कि एक गहराई और मर्मस्पर्शिता है. कट्टरपंथी युवकों को निकहत और लच्छू का प्रेम फूटी आँख नहीं सुहाता. वे लच्छू के साथ मारपीट करते हैं. उसे अपमानित कर बगीचे से भगा देते हैं. अक्सर  इस तरह की घटनाएँ धर्म और संस्कृति की रक्षा के बहाने घटती ही रहती है. बाबरी मस्जिद की घटना हो या धर्म से जुड़ी कोई अन्य घटना हो,  प्रदीप जी के इस उपन्यास में पृष्भूमि के रूप में मौजूद है.

उपन्यास में अनेक स्थानों पर धर्म की व्याख्या की गई है. धर्म को अनेक कोणों से देखा परखा गया है. हर धर्म धर्मिक पुस्तकों, देवताओं और पैगम्बरों के खम्बों पर खड़ा होता है. इंसान ने अपने दुखों से निजात पाने के लिए ईश्वर की खोज की होगी. प्रदीप जी ने यहाँ एक मौलिक विचार रखा है कि समय को किसी धर्म में देवता नहीं माना है जबकि समय ही सबसे बड़ा देवता है. किसी भी  धर्म में समय की कोई पूजा विधि नहीं है.

अयोध्याबाबू जैसे लोग पंचायत में आदिवासी को मिलने वाले अवसर को किस तरह अपने लाभ के लिए भुना लेते हैं, उपन्यास में इसे भी बखूबी चित्रित किया है. अयोध्याबाबू नायक के पिता अनारसिंग का उपयोग अपने लाभ के लिए करते हैं.
अनारसिंग केवल अंगूठा लगाता है, असली सरपंची करते हैं अयोध्याबाबू. उनकी करतूतों के कारण ही अनारसिंग जेल में पहुँचता है.

अनारसिंग के जेल में जाने से उसका पूरा परिवार ही नहीं, पूरा फल्या मातम में डूब जाता है. फल्या भोंगर्या नहीं मनाता. पूरा जंगल शोकाकुल है. जो पहाड़ पलाश के फूलने के गीत गाता था, अब शोकगीत गा रहा था. माँदल किसी बीमार वृध्द की भाँति अकेलेपन का दुःख भोग रहा था. यहाँ प्रदीपजी ने निर्जीव चीजों को भी सजीव रूप में चित्रितकर कमाल कर दिया है.


इनके जब कोई कवि कविता से कथा के क्षेत्र में प्रवेश करता है तो अपने साथ कविता की छाया भी लाता है. चूँकि प्रदीप जिलवाने एक सिद्धहस्त कवि हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से इस कृति में भी भरपूर काव्यात्मकता का समावेश हुआ है. यही कारण है कि उपन्यास का प्रारंभ ही कविता से होता है. उपन्यास को चार भागों में बाँटा जा सकता  है. पहले भाग में  दुरसिंग के फल्ये में लच्छू उर्फ लक्ष्मण की कहानी है. यहाँ फल्येवालों आदिवासियों को एक नेतानुमा  तिलकधारी समझाता है कि हम हिन्दू हैं और हमें साले ईसाइयों के झाँसे में नहीं आना है. उपन्यास के दूसरे  भाग में लक्ष्मण बपतिस्मा के बाद नया नाम लारेंस पाता है. तीसरे भाग में लारेंस के मुस्लिम धर्म ग्रहणकर लतीफ़ खान बन जाने की कहानी है. अंतिम भाग में वह वापस अपने पहाड़ों पर लौटकर आ जाता है. उपन्यास का समापन  एक सकारात्मक प्रतिरोध से होता है. वह पहाड़ों को बचाने की मुहीम में सावित्री बेन, अपने युवा साथियों और नीरू के साथ जुट जाता है.
उपन्यास का यह छोटा सा भाग बहुत महत्वपूर्ण है. हर भाग से पहले सार्थक काव्य पंक्तियाँ हैं, बल्कि कहना चाहिए कि एक कविता से उपन्यास के चारों भाग मजबूती से जुड़े हैं. अंतिम भाग की काव्य पंक्तियाँ बहुत सार्थक, रेखांकित करने योग्य हैं और वाजिब सवाल भी उठाती हैं- शून्य है तो क्या / शून्य सिर्फ शून्य ही रहेगा अंत तक. इस भाग में नायक घोषित करता है-मैं किसी लक्ष्मण डावर को नहीं जानता. मैं किसी लारेंस को नहीं पहचानता. मैं किसी लतीफ  खान से वाकिफ नहीं हूँ. मैं लच्छू हूँ, मेरा पूरा नाम लच्छू पहाड़ है. मेरे पिता का नाम अनारसिंग पहाड़ है. मेरे दादा का नाम दुरसिंग पहाड़ है.

यहाँ नायक सपना देखता है कि केसरिया में हरा घुल रहा है. हरे  में नीला घुल रहा है. नीले में लाल रंग घुल रहा है. सारे रंग घुल-मिलकर एक नए रंग का सृजन कर रहे हैं. जैसे सूर्य की किरणों में सात रंग होने के बावजूद वह हमें किसी आठवें रंग में दिखती है.
शायद यही उपन्यासकार का  आठवाँ रंग है जिसे वह धरती पर फैलते हुए देखना चाहता है. नायक एक और सपना देखता है कि धर्महीन होते ही दुनिया पवित्र हो गई है. जातिहीन होते ही लोगों के मन में एक-दूसरे के लिए सम्मान बढ़ गया है. रंग और भाषा को लेकर लोगों के मन में एक दूसरे के लिए कोई घृणा नहीं है, बल्कि प्यार और सम्मान है.

निश्चय ही यह उपन्यास में अतीत और वर्तमान के  काले पृष्ठ हैं और उजले भविष्य  सपने हैं. युवा उपन्यासकर  को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ.



-गोविन्द सेन, राधारमण कालोनी, मनावर जिला-धार [म.प्र.] पिन 454446 मोब.09893010439 

आलोचना: डॉ . नीना मित्तल- सतरंगे स्वप्नों के शिखर

आलोचना: डॉ . नीना मित्तल- सतरंगे  स्वप्नों  के शिखर


 सतरंगे  स्वप्नों  के शिखर : मधु संधु


आधुनिक हिंदी साहित्य जगत में डॉक्टर मधु संधु एक सशक्त हस्ताक्षर हैं बहुमुखी  रचना संपन्न लेखिका के कहानी संग्रह , अनेकों शोध ग्रंथों , अनुवादों , अनेक पत्रिकाओं में छपे उनके लेखों के अथाह जल परिमल के  मध्य ' सतरंगे स्वप्नों के शिखरउनका प्रथम कविता संग्रह है लगभग ४९ कविताओं का यह रचना समूह हमें जीवन की जहाँ बड़ी से बड़ी विसंगति से रूबरू करवाता है , वहीँ उनकी ज़िन्दगी को तरंगित कर देने वाली एक छोटी सी हरकत  भी उससे  छूट नहीं पाई
अधिकतर कविताएँ मुख्य तौर पर 'नारी विमर्श ' के दायरे में रहकर लिखी गई हैं , पौराणिक युग से लेकर आज  की औरत की व्यथा कथा कही गयी है स्त्री विमर्श कविता में लेखिका  ने लिखा है -
                             तुम्हे पता है
                         राजकन्याओं की नियति
                             डम्बो पति
                     माओं की आज्ञाएं शिरोधार्य करके
                      पत्नियों को मिल बाँट चखते थे
                         शूरवीर पांडवों की तरह
 वह पुरुष के पाशविक निर्णय का  दंश  सहती हुई स्वयं को पीड़ा की गहरी खाई में धकेलती रहती है क्योंकि जानती है कि पुरुष का न्याय सदैव ही उसका यातना शिविर रहा है 'मेरे देश की कन्या ' की नियति के बारे में वे  कहती हैं -
                         मेरे देश की स्त्री
                       इंद्र के बलात्कार और
                 गौतम के शाप की शिकार अहिल्या थी
                      जो पत्थर बन सकती थी
                     क्योंकि उसे मालूम था कि
                       राजन्याय मिलता तो
                   भंवरी बाई से अलग नहीं होता
इस न्याय की कड़ी में वह राम के देवत्व को भी महामानव का नाम नहीं दे पाती क्योंकि आज के रावण को राम नहीं बल्कि महा रावण ही मार पायेगा बुराई का अंत अच्छाई से नहीं बल्कि अति बुराई से ही हो पायेगा ।अपनी कविता महा रावण में कवयित्री लिखती है -
                        कितना  बड़ा झूठ है
                              कि
                         रावण मरते हैं
                        उन्हें मारने के लिए
                           राम की नहीं
                      महा रावण की आवश्यकता है
 वास्तविकता की अनुगूंज से अनुप्रेरित यह कविताएँ अत्यंत मर्मस्पर्शी हैं।
उनकी स्त्री विमर्श को रेखांकित करती हुई कविताएँ हमारी धर्म और न्याय व्यवस्था के मुंह पर  करारा तमाचा  है जिसमें प्रत्येक  क्षण औरत को अग्निपरीक्षा देनी पड़ी है मजबूरी में किए  हुए उसके हर त्याग  को आज उसकी मेहनत  की पराकाष्ठा मानकर उससे वही अपेक्षा की जाती रही  है परन्तु नारी सशक्तिकरण की राह में आज की विवेकशील नारी आसमान की बुलंदियों को छूना तो चाहती है पर पैर ज़मीन के ठोस धरातल पर  रखकर उन्नति का अमृत चखना चाहती है वह पहचान पाना चाहती है अपने पंख काट कर हवा में उड़ना नहीं चाहती
                              सतरंगे स्वप्न पूरे करके भी
                                 मेरे पैर धरती पर
                                    जमे रहें
                                    जमे रहें।
नारी की अर्थ स्वतंत्रता ने आज पितृसत्तात्मक ढाँचे को  चरमरा दिया है लेखिका लिखती  है
                                अर्थ स्वतन्त्र स्त्री ने
                               पुरुष सत्ताक सिंहासन के
                                    ट्रेड सेंटर को
                               आतंकवादियों सा गिराया है
                         परिवार तंत्र में एक नया अध्याय भिड़ाया है
इस संग्रह में कवयित्री ने समाज में गहराते प्रश्नों के दंश  की पीड़ा को महसूस किया है वहीं उन्होंने छोटी छोटी समस्याओं को भी महत्व् दिया है  जो निजी जीवन में इतनी महत्वपूर्ण लगती हैं कि उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता नौकरी के लिए जाने पर पीछे नौकरानियों  के एकछत्र निष्कंटक साम्राज्य  की समस्या  है क्योंकि नौकरों के  बिना स्वयं नौकरी नहीं की जा सकती अपनी कविता मेमसाहब में लेखिका लिखती है
                  जब तुम अपनी डेढ़ छटांक की लौंडिया को
                               मेरे सहारे छोड़
                       सुब्हे नौ बजे निकल जाती हो
                     तो यहाँ सिर्फ मेरा ही राज चलता है
ग्रेडेड वेतन पाने वाले सेवा कर्मचारियों को अर्धसरकारी संस्थाओं से सेवाएं प्राप्त करने के लिए चक्कर लगवाये जाते हैं
शिक्षा का बाजारीकरण  करते एंट्रेंस टेस्टों की विभीषिका का वर्णन करते हुए वे कहती हैं -
                   स्कूल / कॉलेज / विश्व विद्यालय
                      निपट भी जाए तो भी
                       दैत्याकार सा एंट्रेंस
                       रास्ता रोके  खड़ा है
 सेमिनार महोत्सव मनाने के लिए प्रतिबद्ध प्राध्यापक वर्ग है और यहाँ प्रमाणपत्रों का तामझाम बिकता है उलझे विचारों के व्यापारी अपनी विचार मुद्रा का विनिमय करते हैं और प्रतिभागियों को सारी  श्रृंखला का शिकार होना पड़ता है संगोष्ठी कविता  में  इस हक़ीक़त को बयान करती हुई वे लिखती हैं -
                            लो खुल गया
                   विश्व विद्यालय अनुदान आयोग का पिटारा
                          ले  जाओ  संगोष्ठियां
                           बटोर लो प्रमाण पत्र
                            प्रमोशन के लिए
सामाजिक परिवेश से सम्बद्ध लेखिका पारिवारिक परिवेश से भी उसी तरह घिरी है जैसे अशोक के वृक्षों की कतारबद्धता से सुसज्जित घर का सलोना  बगीचा जिसमें आत्मीयता की नरम घास बिछी है पारिवारिक रिश्तों के गहराते अहसास मर्म को छू जाते हैं टीसते  रिश्तों व् उत्सव लगते रिश्तों का सहज वर्णन है , तलाश है , प्रतीक्षा है माँ- बेटी - नानी की कड़ी को जोड़ती रिश्तों की गरिमा है
यह  पूरा काव्य संग्रह माँ - बेटी  के अनन्य रिश्ते के एक परकोटे से  घिरा हुआ लगता है जिसमें माँ हर पल अपनी बेटी के साथ ही बड़ी होती है कदम कदम पर सखी , सहेली, सहचरी बन साथ निभाने वाली बेटी कब बड़ी होकर ससुराल चली जाती है और मन को उसके मेहमान बन जाने की वेदना को सहन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है ।अपने दाम्पत्य जीवन में शारीरिक व् मानसिक  रूप से  कोल्हू के बैल की भांति  पिसती पुत्री बाहर से टोकरी भर रुपये लाकर भी घर में दोयम दर्जा ही प्राप्त करती है बेटी के शरीर पर पड़ती हुई इस एक एक सिलवट की जकड़न माँ के सिवाय कोई और नहीं  जान पाता। बेटी के प्रति इतनी संवेदनशील माँ अपने नाती नातिनों के लिए अत्यंत उदार, स्नेहशील हो उठती है   दूसरों के लिए अमंगलकारी शनिवार उसे अपने लिए उत्सव का दिन लगता है दीपावली लगता है उन्हें देखकर नानी का दिल बेवजह खुशियां मनाता है इन कविताओं को पढ़कर ऐसा लगता है कि लेखिका की दुनिया इन बच्चों के आसपास सिमट गई है यहाँ तक कि बड़े  होते हुए सहोदर रिश्तों में धीरे धीरे कैसी परिपक्वता जाती है,  इस अंतर को उन्होंने बड़ी सूक्ष्मता से उकेरा है
सारी दुनिया, सारे नाते रिश्तों की बात करने के बाद कहीं एक कोना ऐसा बचता है जहाँ निजता छिपी पड़ी रहती है उस निजता में अपने जीवन के रागात्मक तंतु के खो जाने की टीस है , महत्वाकांक्षाओं की आसमानी बुलंदियों में हाथ छूट जाने का दर्द है अपनी पीड़ा को जुबां देती हुई लेखिका कहती है -
               तुमने पल में झटक डाला हाथ मेरा
               साथ मेरा
              और छूते बादलों को मान बैठे
              छू लिया अंतिम शिखर
ज़माने के बदलते तौर - तरीकों में जीवन की बदलती भूमिकाओं में स्नेह का धागा चटखता जा रहा  है व्यक्ति से शून्य हो जाने की वेदना , मौत से पहले मरने की अनुभूति तब गहर गंभीर हो जाती है जब रिश्तों पर कटार चल जाती है बिना किसी शर्त के जीने की सुविधा नहीं रहती और दोनों ओर प्रेम पलता है का एहसास  गुम हो जाता है लेखिका  लिखती है  -
                       मेरी उम्र सिर्फ उतनी है
                     जितनी अनामिका की अंगूठी से
                           सिंदूरबाजी से
                      मंगल सूत्र धारण से पहले
                        घूँट घूँट पी थी
 अपनी माँ से जुड़ाव की अनन्यता व् पिता के  प्रेम की गरमाई  का रेत की तरह हाथ से फिसल जाना और माँ की तपस्या से जीवन की सफलता हासिल होने की गहरी अभिव्यक्ति इन कविताओं में संजोई गई है लेखिका माँ कहने व् माँ बनने के दोनों अनुभवों को भरपूर जीती है ।सफलता के शिखरों को छू पाने के कारण आज की युवा पीढ़ी प्रवास के लिए मजबूर है यही मजबूरी आज स्टेटस सिंबल व् सफलता का पैरोमीटर  बन चुकी है अकेले होना  व्  अकेले कर जाने की व्यथा से कहीं दूर पितृऋण चुकाने की उड़ान बन गई है
अपनी कविताओं में लेखिका ने समय को बड़ी सुंदरता से परिभाषा बद्ध किया है बदलती परिस्थितियों, बीतते वक्त और विभिन्न भूमिकाओं में समय के परिवर्तन का बखूबी चित्रण किया है स्वयं के पास समय के सागर का सैलाब और दौड़ती भागती बेटी का समयाभावका सुन्दर वर्णन है
लेखिका कहती है-
                        पर उम्र उम्र की बात है
                       उधर समय का अकाल है
                       इधर समय का सैलाब है  
कवयित्री को कहीं ऐसा लगता है इस ऊहापोह में स्नेहाभाव  रिसने लगा है समय की कमी ने कंप्यूटर की 'लाइक ' तक सीमित कर दिया है कहना अतिश्योक्ति  नहीं होगी कि डॉ॰ मधु संधु जी का यह काव्य संग्रह भाव पक्ष के जिन विचार बिन्दुओं की सतरंगी इंद्रधनुषी छटा को लिए चला है,  अपने कलापक्ष के माध्यम से उनकी अभिव्यक्ति  में भी उन्होंने कोई कसर   बाकी नहीं छोड़ी
रचना संग्रह में  तत्सम , तद्भव तथा  आधुनिक अंग्रेजी शब्दों की अद्भुत छटा देखने को मिलती है। इन शब्दों का चयन लेखिका की रचना के मर्म को सम्प्रेषित करने में पूरी  तरह सहायक है। अंग्रेजी भाषा के प्रचलित शब्द व्हाट्सप्प , लाइक , कमेंट करना , चैटिंग करना इत्यादि समयानुरूप शब्दों का प्रयोग  किया है उनकी सहोदर किशोर स्टाफ जैसी कविताओं में चित्रात्मकता झलकती है रोगों में जिजीविषा पैदा करने के साथ साथ जो उसे इकसठ से सोलह की तरफ मोड़ने का जोश प्रदान करती है
अतः डॉ॰ मधु संधु का यह काव्य संग्रह अपनी संवेदनशीलता , समाज सापेक्षता , वैयक्तिता , परिवेशमयता  , रिश्तों की बुनावट के गहरे सरोकार लिए हुए है

प्रकाशक: अयन, दिल्ली
वर्ष: 2015
पृष्ठ संख्या: 110
मूल्य: 240 रूपये
आई॰ एस॰ बी॰  एन॰ : 978-81-7408-842-0

                                              
                                                        द्वारा   - डॉ . नीना मित्तल
                                   प्रोफेसर
                                                        हिंदी विभाग 
                                                       प्रेम चंद मारकंडा एस डी कॉलेज

                                                        जालंधर शहर, पंजाब ।  .