Wednesday 18 November 2015

दंतकथा और अन्य कवितायें



Top of Form
Bottom of Form
समीक्षक -वंदना गुप्ता 
दखल प्रकाशन से प्रकाशित शिरीष कुमार मौर्य का कविता संग्रह दंतकथा और अन्य कवितायेँ अपने समय को प्रतिबिंबित करने के साथ खुद के अन्दर पलती एक जद्दोजहद को भी प्रस्तुत करने का प्रयास है . ज़िन्दगी भर की कसमसाहट को मानो आवाज़ देने का प्रयास हो , एक घुन जो अन्दर ही अन्दर खा रही थी उससे कुछ निजात पाने की प्रक्रिया है सम्पूर्ण संग्रह . नहीं जानने के बाबजूद भी मेरा होता है और कभी कभी भरपूर जानने के बावजूद भी नहीं होता पहली कविता ये जो मेरापन है एक इन्सान को कहीं भीतर धकेलती है और उसकी आदिम पहचान से उसे मिलवाने की कवायद है . मैं और मेरा के चक्रव्यूह में घिरा मानव उम्र गुजार देता है मगर कभी इससे बाहर नहीं आ पाता क्योंकि स्वार्थ की गोटी चलते हुए हमेशा खुद को दांव पर लगाता रहा मगर नहीं जान पाया कि यहाँ यदि कुछ पाना है तो सबसे पहले खुद को जीतना होगा उसके बाद सारा जहान हमारा है , मुझसे इतर कुछ है ही नहीं , द्वि का पर्दा डाले उम्र गुजारता मानव सामाजिक सरोकारों से जुड़ता टूटता कभी नहीं जान पता अंतिम उद्देश्य और निष्कर्ष में बचती है तो सिफ आदिम प्यास जब तक कि अंतिम छोर पर पहुँचने से पहले न जान लिया जाए अपने होने को मैं और मेरे से परे भी और  मैं और मेरे के साथ भी बस वो ही है मेरापन .
दंतकथा जाने अपने अन्दर कितनी अनसुलझे रहस्यों को समेटे है फिर वो चाहे इतिहास से सम्बंधित क्यों न हों या फिर आज के सन्दर्भ में , एक ऐसे समय में जीते हम नहीं जान पाते उन रहस्यों को जो हमारी विरासत की नींव हैं , होकर उनसे लापरवाह मानव गढ़ना चाहता है नयी तस्वीर बिना जाने सत्यता के धरातल कि विकास और प्रगति की राहों पर चाहे जितना चलो नींव में जो इतिहास दबा है वो ही बना है कभी कमजोर व्यवस्था का उत्तरदायी तो कभी मजबूत व्यवस्था का पोषक . इतिहास से सबक लेकर ही निर्माण हो सकता है नयी सभ्यता का नहीं तो जिम्मेदार रहेंगे हम एक बार फिर उसी लिजलिजी सड़ी - गली व्यवस्था का .
दंतकथा के माध्यम से कवि ने मारक वार किया है फिर वो इतिहास हो वर्तमान या भविष्य . एक सुखद भविष्य के लिए जरूरी है इतिहास और वर्तमान से सबक लेकर भविष्य की नींव पुख्ता रखनी वर्ना कमजोर जबड़े कब तक रोक पायेंगे दांतों को गिरने से ये समझना बहुत जरूरी है . सारा ज्ञान कर्मों में समाप्त हो जाता है एक ऐसी सच्चाई जिससे मुख नहीं मोड़ा जा सकता . ज़िन्दगी में इंसान जो भी पढता है पूरा जीवन में उतार सके संभव नहीं हो पाता क्योंकि व्यवस्था ने हाथ पाँव इस तरह बाँध रखे हैं कि चाहकर भी उसके दुश्चक्र में फंसे बिना नहीं रहा जा सकता और यही आम मानव की त्रासदी है जिस पर कवि ने गहरा प्रहार किया है :
कि कोई चाहता था
मेरे जीवन को पढना
पर कितने ही हिज्जे गलत हो गए
जो लिखा उससे जीवन कुछ और बन गया
किसी को पढना था कुछ पढ़ कुछ और गया
कुछ खास नहीं करता हूँ
तब भी कई सरे उम्मीद भर नौउम्र चहरे मेरा इंतजार करते हैं
मैं वेतन लेता हूँ अमीरी रेखा का
और एक सरकारी कमरे में गरीबी रेखा को पढ़ाने जाता हूँ

अंतिम पंकियाँ व्यवस्था पर वो कटाक्ष हैं जिससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता क्योंकि यथार्थ का धरातल बहुत कठोर होता है और सिर्फ किताबी ज्ञान के सहारे ज़िन्दगी नहीं गुजरा करती है . जरूरी है बचपन से ही संस्कारों के बीजों का रोपण अन्यथा बड़े होने पर कौन सी फसल उगेगी कोई नहीं जानता . जीवन खतरे की घंटी बन जाता है जब बचपन को सही दिशा और संस्कार नहीं दिए जाते , गलत और सही का फर्क नहीं बताया जाता जिसे आने वाले कल को भुगतना पड़ता है . एक सीखनुमा कहानी के माध्यम से गहरी बात कहना ही कवि के लेखन का हुनर है जीवन में खतरा है भी एक जरूरी कथा है कविता :
 ज्ञानी थे ताऊ जी पर जाहिल निकला खूब पढ़ा लिखा भतीजा उनका
जो बेटे को शहर के सबसे बड़े स्कूल में भेजते हुए भी
उसके जीवन में कहीं पर
वो एक बेहद जरूरी खतरा है लगाना भूल गया है
स्त्री पुरुष सम्बन्ध हों या कविता उतार चढ़ाव अनिवार्य अंग होता है जीवन का मगर कवी हो या पुरुष उसकी दृष्टि सिर्फ सौन्दर्य पर ही रुकी रहती है या कहो वो सिर्फ स्व सुख या अपने हिसाब से गुनगुनाना चाहता है मगर कविता हो या स्त्री वो चाहती है पुरुष का सम्पूर्ण समर्पण . सम्पूर्णता ही तो जीवन का रिश्ते का सौन्दर्य होतीहै इस अर्थ को जानते हुए भी कवि हो या पुरुष खुद को उस स्टार तक चाहते हुए भी नहीं ला पाता फिर स्त्री हो या कविता कैसे पा सकती है सम्पूर्णता जिसे कवि ने बखूबी उकेरा है इन पंक्तियों में :
मैं उसे शास्त्रीय राग में निबद्ध किसी लम्बे ख्याल
तो कभी
ठुमरी और दादरा की तरह गाना चाहता हूँ
पर क्या करूँ एक लगभग कवि हूँ मैं
और वह समूची कविता
मुझे संगीत तो आता है
पर उसे स्वर देना नहीं आता
उसकी दूकान से कुछ आगे एक भव्य और भयानक शोरूम है
उसमे भी किताबें ही हैं
पर वह लिखे हुए से ज्यादा लिखनेवालों को बेचता है
सिर काट के शोकेस में सजाता है
धडों को सरकारी खरीद के मुर्दाघरों में भेजता है
एक ऐसा व्यंग्य जो आज का वो सत्य है जिससे कोई मुंह नहीं मोड़ सकता.आज साहित्य के बाज़ार की गलाकाट प्रतियोगिता में दो धडों के बीच मचते घमासान की मुखर अभिव्यक्ति है ये कविता- संतों घर में झगरा भारी ‘ . जो झगडा आज का नहीं है युगों से काबिज है दो वर्गों के बीच . एक स्वाभिमानी लेखक और एक पुरस्कारी बिकाऊ लेखक के बीच के अंतर को दर्शाती , बाजार संस्कृति किस तरह हावी हुई है उस पर दृष्टिपात करती हुई एक उद्घोषणा पर समाप्त होती है वक्त रहते संभलना जरूरी है कहीं दो बंदरों की लड़ाई में बिल्ली माल साफ़ न कर जाए समझना जरूरी है जिसे इन पंक्तियों के माध्यम से समझा जा सकता है :
और यह उजड़ना भी
कईयों के लिए एक रोचक दृश्यकाव्य है
अब तमाशबीनों में से ही कोई घर कब्ज़ा ले
सहज संभाव्य है
मानव जीवन के परिप्रेक्ष्य में एक खोज जो आदिकाल से चली आ रही है और अनंत तक जिसका विस्तार है . एक अधूरेपन के साथ जीना इंसानी विवशता जो चाहकर भी पूर्ण नहीं होता तब तक जब तक खुद को नहीं खोज लेता इंसान , अपना पता नहीं मिलता तब तक जीवन एक ऐसी असफल लम्बी कविता है जो हमेशा अधूरी ही रहती है को पूरी तरह परिभाषित किया है कवि ने कविता बुल्ला की जाणा मैं कौण जो निम्न पंक्तियों के माध्यम से उद्धृत किया गया है :
मैं कौन हूँ
कोई तो बताये
मैं हूँ एक लम्बी कविता अमर जिसकी असफलता
अजर जिसका अधूरापन
मानव मन की गहन अनुभूतियों का संगम है – ‘ हे पिता ‘ . एक बच्चे की अपने पिता से अपने होने न होने के सम्बन्ध में एक गुहार , एक संवाद मानो कवि कहना चाहता हो देखो कहाँ आ गया हूँ मैं , तुमने कहाँ भेजा था मुझे और क्या हो गया हूँ मैं मानो परम पिता परमात्मा से कवी संवाद कर रहा हो . यों एक पिता से भी समवाद के रूप में लिया जा सकता है कविता को . स्मृतियों का बीहड़ बहुत सघन है जहाँ कंटीली झाड़ियों से लहुलुहान है कवि की आत्मा और आखिरीहथियार के रूप में बची है कवि की वेदना संवाद रूप में .
गहन वेदना को प्रस्तुत करती कविता कवि मन की गहराइयों का वो संवाद है जिसका तीखापन कवि की कविता में स्वयमेव उभर आया है . जर्जर कविता एक सम्पूर्ण जीवन दर्शन समाया है . एक नौकरीपेशा जीवन की त्रासदी जो स्वयं किसी कविता से कम नहीं यानी कविता दुःख दर्द तकलीफों का , पीड़ा और वेदना का चित्रण ही तो होती है और जीवन एक कविता सा ही तो गुजरता है . दोनों में फर्क करना जहाँ सम्भव नहीं रह पाता कि जीवन एक कविता है या कविता ही जीवन सी गुजर गयी . कविता जो स्वयं में ख़ुशी और गम का चित्रांकन होती है और जीवन भला उससे इतर कब होता है तो कैसे न जीवन को कविता का नाम न दे कवि ये है कवि की उच्च सोच जिसे वो यूं व्यक्त करता है :
जीवन नष्ट होता है इतना
कि उससे एक जर्जर कविता बन जाती है
जागना एक ऐसी क्रिया है जिसकी प्रतिक्रिया दूसरों के जागरण के साथ पूर्ण होती है . स्वयं का जागरण अन्तश्चेतना का जागरण ही मनुष्यता की पहली सीढ़ी है और जो इस राह के हमसफ़र हैं जो चाहते हैं बदलाव , जो रखते हैं कुछ कर सकने का जज्बा उनके जागरण पर ही संभव है देश समाज और दुनिया की एक नयी तस्वीर का गढ़ना बस जरूरत है तो सिर्फ इतनी जो आगे बढे उसकी टांग पकड़ कर खींचने की बजाये आगे बढ़ने में सहायक होना , साथी हाथ बढ़ाना एक अकेला थक जायेगा मिल कर बोझ उठाना की तर्ज पर अपने कर्त्तव्य का पालन करना ही वास्तविक जागरण है , वहीँ स्वप्नों की दुनिया साकार हो सकती है और इसी का तर्जुमा है विनोद कुमार शुक्ल को याद करते हुए लिखी गयी कविता मुझे नींद नहीं आ रही जिसमे जीवन का सम्पूर्ण दर्शन समाया है , सोने और जागने के बीच में होते जागरण और कशमकश का एक ऐसा खाका खींचा है कवि  ने जो अन्तस्थ को कचोटने को काफी है जिसकी बानगी इन पंक्तियों में मुखरित होती है :
मेरे असंख्य पिटे हुए लोगों
अधिक कुछ नहीं मैं तुम्हारे साथ सुबह तक रहना चाहता हूँ
चाहता हूँ एक बहुत बड़ा वक्त है मेरे जीवन में
चाहता हूँ
कि मैं जब सुप्रभात कहूं तुम्हें
तुम शुभयात्रा कहना
अभी सुबह नहीं हो सकती नवम्बर २०१२ में दिल्ली की एक रात में लिखी गयी कवि द्वारा कविता नकारात्मकता पर सकारात्मकता का संबल कवी है जीने के लिए मानो इस मूलमंत्र का जाप करती हो . एक नकारात्मक समय में जीते हम चाहे किसी भी हद तक नकारात्मक हों मगर एक सकारात्मकता हमारे अन्दर हमेशा पलती है कि अंत में सब ठीक हो जायेगा इसलिए नहीं होती स्वीकार्य ऐसी नकारात्मकता जो जीने को ही प्रश्नचिन्ह बना दे . उम्मीद की किरण काफी होती  है अँधेरे चराग जलाने को इसी का पालन करता कवि अभी उम्मीद का दामन थामे है जो एक कवि की कविता की अंतिम पहचान होता है . कवि का धर्म है उम्मीद  जन्म देना , हौसलों को उड़ान देना जिसका पालन अक्षरक्ष: कवि ने कविता में  किया है . सकारात्मक पहलू ही कविता का सौन्दर्यबोध है . गोपनीय मानो ये शब्द लिख कवी अपने जीवन भर की भड़ास निकालता है . मानो एक बंधी बंधाई लकीर पर चलने की मजबूरी से निजात पाने का अंतिम विकल्प है कविता के माध्यम से सारा विष वामन कर खुद से नज़र मिलाने लायक महसूसना , कुछ राहत की सांस लेना , कुछ खुद से ईमानदार होने को पुरस्कृत करना .......... बस यही है कवि के लेखन का उपक्रम जो एक वक्त पर आकर जरूरी हो जाता है , हर गोपनीयता को उल्लखित कर देना ही अंतिम विकल्प है खुद से नज़र मिलाने का और यही है ज़िन्दगी का हासिल जब आप खुद से नज़र मिला सको , मुस्कुरा सको इन पंक्तियों में उल्लेखित है कवि उद्घोषणा जो स्वयं से करता है :
और ऐसा करते हुए मैं छुपता नहीं
बचपन के हारे हुए खेल की तरह भरपूर दिखता हूँ
जहाँ जहाँ लिख सकता हूँ इस गोपनीयता की ऐसी तैसी लिखता हूँ
हम हार नहीं रहे हैं राजनीति, आतंकवाद आदि पर प्रहार करती रचना मनुष्य  की जिजीविषा से ओत प्रोत है . आज के समय का सटीक चित्रण है फिर चाहे कितना प्रहार होते रहे बाकी है अभी इंसान में जीने जा जज्बा हर हाल में वो ही उसका सबसे बड़ा हथियार है . हम चुनाव में हैं आज की राजनीति का सत्य है कैसे एक सही कहने और करने  वाले इंसान का नामोनिशान मिटा देने के कवायद शुरू होती है और सत्ता रुपी  वेश्या को भोगने को शुरू हो जाती है दलालों में दलाली , कुर्सी का मोह छीन लेता  है हर आचार विचार और संहिता और पटक दिया जाता है आम आदमी हाशिये पर कहते हुए
ये किस जंगल से आया है यहाँ सब सुसभ्य इन्सान काम करते हैं
और जंगल के कानून यहाँ नहीं चलते हैं फिर एक अकेला कैसे कर सकता है
आमूलचूल परिवर्तन जहाँ हमाम में सभी नंगे हों . खेत में घर इंसानी लालच की पराकाष्ठा का वो चित्रण है जिससे आज कोई अनजान नहीं . वहीँ रेल की पटरियां कविता लिखने से पहले की मनः स्थिति का चित्रण है अवसाद क्रोध और बेबसी के बीच कविता का कैसे जन्म होता है उसका चित्रण किया है रेल की पटरियों के माध्यम से जीवन में आये उतार चढ़ाव और दृश्यावलियाँ बनती है कविता का खाद पानी . अंत में कवी नीलेश रघुवंशी के प्रति आभार प्रकट करते हुए एक कसबे के नए नोट्स के माध्यम से कैसे शराब जीवन बर्बाद कर रही है और कैसे सरकार सब कुछ जानते हुए भी आँखें मूंदें बैठी है न केवल उसका चित्रण है बल्कि ये सब देख एक कवी ह्रदय किस तरह पीड़ा हताशा और क्रोध से व्यथित होकर अपनी वेदना को शब्दबद्ध करता है मानो शिव बन विषपान कर रहा हो कुछ न कर पाने की मजबूरी में .बेरोजगारी , प्रेम में असफलता और पागलपन के बिम्ब सहजता से सम्पूर्ण दृश्य को रेखांकित कर देते हैं कि कैसे थोड़े से फायदे के लिए युवाशक्ति के जीवन से खेला जाता है और इसी के साथ जीना इंसानी मजबूरी है और जब वेदना आसमां का सीना फाड़ने में अक्षम हो जाती है तब कविता के रूप में  प्रस्फुटित होती है कुछ इस तरह :
कि मेरा कवि अंततः मनुष्यता के दुर्दिनों का कवि है
जो अपनी पीड़ा, प्रेम और क्रोध के सहारे जीता है
शराब पीनी छोड़ दी है जिसने कभी की
अब बस अपने भीतर का अब्रो आब पीता है
संग्रह की सभी कवितायेँ मानव मन की पीड़ा का ही विएचन करती हैं इसलिए सम्पूर्ण संग्रह जीवन की बेजारी का वो नक्शा है जिसे ज़िन्दगी के मानचित्र पर सिर्फ एक कवि ही उकेर सकता है वर्ना ऐसे दृश्यों के लिए नहीं बनाए जाते  स्मारक नहीं होतीं जगहें चिन्हित और कवि सक्षम है अपने मन के भावों को शब्दबद्ध करने में और यही कवि के लेखन की सफलता है जहाँ उसकी निगाह  समाज में फैली विद्रूपताओं और विसंगतियों पर न केवल पड़ती है बल्कि उन पर प्रहार भी करती है केवल कह देना भर नहीं है कवि का लक्ष्य बल्कि निजात पाने को अन्दर की आग को जगाने को भी काफी हैं कवितायें जो कविता का आवश्यक अंग गिना जाता है जिसे कहने में कवि की लेखनी सक्षम है .

2 comments:

  1. मेरी लिखी समीक्षा को यहाँ स्थान देने के लिए हार्दिक आभार

    ReplyDelete