Monday, 20 June 2016

सदियों का संताप : समीक्षक : डॉ गिरीश चंद्र पाण्डेय प्रतीक

बहुत दिनों बाद कल सायंकालीन भ्रमण पर जाने का सुअवसर मिला चर्चा ए किताब में साथ थी ओमप्रकाश बाल्मीकि की किताब सदियों का संताप निकल पड़े अपनी डगर की ओर साथ में थे पहली बार जुड़े मेहरा जी और रोज के साथी महेश पुनेठा जी राजेश पंत जी विनोद उप्रेती जी दीप पंत जी,मैं और साथ में था उत्साह और पके हुए बेदुओं के काले काले सुगन्धित फल ,एक नयी किताब को पढ़ने और समझने का किताब थी "सदियों का संताप" इस शीर्षक से ही मन संताप की ओर जाने लगता है और सदियों का मलिन इतिहास सामने मानो चीख और चिल्ला रहा हो की अब मुझे इतिहास में नहीं रहना मुझे वर्तमान से संघर्ष करना है।
मैं अब झाडुओं की सीकों को नहीं बिनना चाहता ।पखानों की बजबजाती दुर्गन्ध से दो चार नहीं होना चाहता ।नहीं बैठना चाहता अब कूड़े के ढेरों के पास ।कहता सा दिखता है अरे ओ! इतिहास के अपहरण कर्ताओ कभी हमारे जीवन के भूगोल और अर्थशास्त्र को हमारी नजरों से तो देख लेते।कभी हमारे खून पसीने से बह रहे तुम्हारे कुकर्म और सड़ांध को महसूस तो कर लेते।तुम क्यों करोगे ये सेंट लगाकर सोने वालो तुम्हारे नथुने तो बने ही हैं खुशबू सूंघने को।हाथ हथियार उठाने , पोथी पलटने और गल्ला भरने को ।कब तक आखिर कब तक ।
ओमप्रकाश जी दलित साहित्य के एक मजबूत स्तम्भ हैं और अगुवा भी जिनकी हर कविता मसाल लेकर क्रांति करती सी दिखती है।और कविता को हथियार की तरह प्रयोग करते है।अपनी चोट कविता को लेकर वो कहते हैं लोहा पिघलता भी है और ढलता भी है पर तुम नहीं ढल सकते ।

ओमप्रकाश जी बड़ी निर्भीकता से ललकारते भी हैं जिन कामों को हम कर रहे उन्हें करके देखो जो मजबूरी हमारी हैं उन्हें जीकर देखो ।सदियों का सन्ताप कविता संग्रह का कलेवर बहुत बड़ा नहीं फिर भी दमित भावनाओं का क्रांति कारी दस्तावेज या कहूँ उस वर्ग को प्रकाशित करने वाली मसाल है।

इनकी कविताओं को पढ़कर एक बात समझ में आयी खुद जिया हुआ समय और परिस्थितियां ही सत्य और यथार्थ के नजदीक होती हैं और वही रचना पाठक को उद्वेलित भी करती हैं।किताब पर खुलकर चर्चा हुई विनोद, राजेश ,राजू भाई ने भी दलित और दमित वर्ग के साथ हो रहे धर्म और मनगढ़ंत कथाओं के जरिये अन्यायों पर प्रकाश डाला गया अंत में महेश पुनेठा जी द्वारा भी पुस्तक में छुपे गूढ़ तथ्यों की ओर इशारा करते हुए कहा की असली कविता वही कहलाती है जो आपको अंदर तक हिला दे और समस्या के साथ समाधान भी सुझा दे और कुछ करने को प्रेरित करे ।समय हो चला था साढ़े सात वापस घर की ओर ओमप्रकाश जी के शब्दों और उनके जीवन की व्यथा के साथ ,शायद आज उनके शब्द सोने न दें।

डॉ गिरीश चंद्र पाण्डेय प्रतीक
पिथौरागढ़ उत्तराखंड

Tuesday, 14 June 2016

"स्त्री की आजादी" कथा की समीक्षा।

"साहित्यिक बगिया" पर  आरती तिवारी द्वारा  लिखी "स्त्री की आजादी" नामक कथा लगायी गयी जो समसामयिक परिवेश में स्त्रियों के निकृष्ट सोच पर प्रहार करती है।
कथा पर गीतांजलि शुक्ला , प्रकाश सिन्हा ,मणि मोहन मेहता , निशि शर्मा "जिज्ञासु" ,शरद कोकास , प्रियंका शर्मा , आभा खरे , आकाशदीप , अभिषेक द्विवेदी "खामोश" , एम एम चन्द्रा , अरूण शीतांश , आकांक्षा मिश्रा , नरेश मेहता , कुंवर इन्द्रसेन , सुरेन्द्र कुमार "सुरेन" सुशीला जोशी  और विमल चन्द्राकर ने कथा पर अपने विचार रखे।
गीतांजलि  ने आरती तिवारी जी इस को बेहतर कथा कहा।
    मणि मोहन  ने कहा कि यह कथा स्त्री विमर्श के नाम पर चल रहे ढोंग का पर्दाफाश करती है साथ यह भी माना आज ऐसा पर्दाफाश करना आवश्यक भी है।निशि शर्मा  ने कहा कि आरती जी कथा के माध्यम से शुक्ला जैसे धनिक की कामुकता और दोहरे चरित्र की बखिया उधेड़ना जरूरी है।पात्रों स्त्रियों की आजादी को अपने नजरिये से थोपना, कथनी और करनी में भेद को आईना दिखाना जरूरी है।
         प्रकाश सिन्हा  ने कहा कि समाज में विचारों का कितना दोगलापन है, आरती जी कथा से साफ दिखता है। कथा में बहुत प्रेम चन्द के गोदान में चल रही बहस काम जिक्र सा मिलता है।
शरद कोकास  ने कहा कि इस कथा में पुरूष की वासना कथा का केन्द्र है जिस पर एक अच्छी मनोविज्ञानिक कहानी लिखी जा सकती है।
 प्रियंका ने कहा कि -"आज के समाज में व्याप्त राजनैतिक परिवेश को लेकर लिखी गयी है।लघुकथा में सांस्कृतिक संगोष्ठियों कार्यक्रमों के आयोजन पर भी प्रकाश डाला गया है।कैसे आये दिन आज एक से एक आयोजन  होते रहते हैं।
आव भगत, भोजन- पानी, नाश्ते केस इंतजाम कवि कवयित्री को निमन्त्रण सब आज केस परिवेश में सहज ही सत्यता से देखे सुने पाये जाते हैं।लेखिका ने स्त्री की दशा पर बहुत बारीकी से अध्ययन जारी किया है शुक्ला जी जैसे कथित आद्रा शांडिल्य पुरूषों के पुरूषार्थ उनकी मानसिकता को बहुत खूबसूरती से आज के परिवेश में बाहर लाया जा सका है।उनकी घूरती खा जाने वाली निगाहों के द्वारा उनके चरित्र के घिनौने रूप को आम जनमानस के बीच बेबाक ढंग से रखा जान सका है।केवल दैहिक सौन्दर्य के इस पुजारी से बचने का संकेत साफगोई से देखा समझा सकता है।
एक तरफ कैसे वो दूसरे की बहु बेटियों पर गंदी नीयत से देखता और अपने घर की स्त्रियों को घर में कैद रखने की बात करता।लघुकथा में उनकी इस घटिया सोच का खुलासा होने पर स्त्री का प्रतिकार,और संगोष्ठी का बहिष्कार सभी के द्वारा भोजन त्याग उचित अन्त लाता है।
आभा खरे ने आगे कहा कि- "प्रस्तुत कथा का विषय अच्छा है लेकिन लघुकथा लेखन के फार्मेट और ट्रीटमेंट को लेकर मैं शरद कोकस जी से सहमत हूँ"।
आकाश  ने कहा कि आरती की लिखित कथा बडी ही बारीकी से सामाजिक वर्जनाओं व रूढ़ियों को प्वाईन्ट आऊट करती है।अभिषेक द्विवेदी ने कहा कि कथानक का उचित प्रस्तुतिकरण ही इसकी उपलब्धि है। स्त्री की आजादी एक ऐसा विषय है जिस पर पुरुष बात तो करना चाहते है। पर अपने घर परिवार से इतर।
एम एम चन्द्रा  ने कथा के विषयक अपनी बात रखते हुये कहा कि "यह उन लोगो  की कहानी है जो अपने संसाधनों के दम पर साहित्य में घुसपैठ करते है. यह  आज के तथाकथित साहित्य की एक अलग तरह कि दुनिया है जो हमारे सामाज में अब बहुत ज्यादा दिखाई दे रही है."कहानी  में महिला विमर्श के पैरोकार  ही सबसे ज्यादा अपने घर की महिलाओं को इतनी भी आजादी नहीं देते, साहित्यकार अपने मित्रों  के सामने कोई बात कर सके. इस कहानी की विषय वस्तु का चयन एकदम ठीक है किन्तु उसका शिल्प संवाद शेली में  होता तो अधिक चौट करती।
    नरेश भारती  ने कथा को बेहतरीन व स्तरीय बताया।वही आकांक्षा ने कहा  कि यह स्त्री विमर्श को मुद्दा बनाकर लिखी गयी है।
कथा की समीक्षा करते हुये मंच के  संचालक विमल चन्द्राकर ने कहा कि "कथा का विषय बहुत रोचक है। कथ्य भी शानदार बन पड़ा है, लेखिका ने शुक्ल जी के पात्र को लेकर आज के समाज के एक दकियानूसी परम्परा को लेकर आम जन मानस के मध्य कई सवाल उठाये हैं।आज के राजनैतिक सामाजिक सांस्कृतिक आयोजन, संगोष्ठियों और बैठकों में कैसे एक पुरूष अपनी पद प्रतिष्ठा और रूतबे को कायम करने का स्वांग  रचते हुये काव्य सम्मेलन के आयोजन में साहित्यकारों कवि कवयित्रियों का जमावड़ा लगवाता है और रह रह कर एक टक उनसे जिस्म को खा जाने वाली दृष्टि से देखता है।यह सम्मेलन में आयी प्रत्येक महिला की सिकुडन व झुकी नजरे कहने को पर्याप्त हैं।
आरती

 ने शुक्ला जी के चरित्र के माध्यम ऐसी सोच रखने वाले, निकृष्ट ओछी विचार धारा के लोगों का धूर्ततम चेहरा बेनकाब करने का सजग प्रयास किया है।
एक पाठक के तौर पर यही मानता हूं कि आज के समाज की प्रत्येक स्त्री को शुक्ल जी जैसे लोगो की घूरती निगाहों से स्वयं को सुरक्षित करने, आवश्यकता पडने पर भरपूर विरोध करना ही होगा।
साथ ही मंच पर सभी के द्वारा विचार विधि टिप्पणी देने के लिये उन्सोने सभी को साहित्यिक बगिया की ओर से आभार भी व्यक्त किया।

Saturday, 11 June 2016

होने से न होने तक : सूरज सिंह सार्की

हाल- फिलहाल राजनी छाबड़ा जी का काव्य संग्रह "होने से न होने तक" पढ़ा....न आलोचना, न समीक्षा है। बस काव्य संग्रह में क्या समाहित है उसी को बताने का प्रयास किया है........मेरा पहला प्रयास आपके सम्मुख...
होने से न होने तक
कवियत्री रजनी छाबड़ा जी का पहला काव्य संग्रह " होने से न होने तक" अयन प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है । इस काव्य संग्रह में छोटी - बड़ी कुल 62 कविताएं है । संग्रह की पहली कविता 'हम जिंदगी से क्या चाहते है' में वर्तमान समय के युवाओं का भटकाव दिखाया गया है फिर भी इन भटकते युवाओं में ज़ज़्बा तो है जो इन्हें जिलाये रखता है
' हम खुद नहीं जानते
हम जिंदगी से क्या चाहते है
कुछ कर गुजरने की चाहत मन में लिए
अधूरी चाहत में जिए जाते है'
यहाँ युवा कुछ नया करना चाहता है मगर घर के लोगों ने ही संस्कारों की दुहाई देकर उसके नए सोच को, नयी रीती- नीति को हमेशा के लिए क़ैद कर लिया है ।
'उभरता है जब मन में
लीक से हटकर
कुछ कर गुजरने की चाह
संस्कारों की लोरी देकर
उस चाहत को सुलाये देते है
'दिल के मौसम' कविता में इंसानी फितरत को कितना स्टीक दिखाया गया है, एकबानगी देखे
'होती है कभी फूलों में
काँटों सी चुभन
कभी काँटों से
फूल खिला करते है'
पाठक क्यों न सहज ही उनके सोच के गिर्द घूम जाए , फिलहाल 'चाहत' कविता की पंक्तियाँ तो यही कहती है
गर चाहत एक गुनाह है
तो क्यों झुकता है आसमान धरती पर
क्यों घूमती है धरती सूरज के गिर्द
माँ -बेटी के रिश्तों की गर्माहट लिए कुल 3 कविताएं संग्रह में है, 'प्रश्न चिह्न', 'माँ को समर्पित', 'क्या तुम रही हो माँ' !
'प्रश्न चिह्न' कविता में भ्रूण हत्या का मामला उठाया है। बेटी सवाल करती है
मैं बेटी हूँ
तो क्या अवांछित हो गयी
क्या बेटा जनमने से ही
गर्वित होती तुम?
किन्तु कवियत्री इस प्रश्न के उत्तर में ज्यादा गहराई से नहीं जा पाती। मात्र अपने ममत्व, वात्सल्य के ज्वार में बेटी पैदा करना चाहती है। जबकी बेटी को बेटे से अधिक महत्व दिया जाना चाहिए था। गर्भ में बेटी की हत्या के लिए स्त्री- पुरुष दोनों बराबर के जिम्मेदार है इस बात का जिक्र कविता में नहीं मिलता। कवियत्री के लिए बेटा- बेटी एक समान है
निज लहू से सींचे
बेटा हो या बेटी
दोनों एक समान
'माँ को समर्पित' कविता में अपने बच्चों के लिए माँ द्वारा किये गए शाश्वत और महान कार्यों का बखान किया गया है। निश्चित ही कवियत्री के स्वयं के अनुभव है। माँ के जिंदगी के आंखरी समय में उनकी शिशु की भांति सेवा, दुलार, प्रेम करना चाहती थी। मगर भाग्य को कुछ और मंजूर था तभी तो कविता में यह प्रसंग आया है
तुम, हाँ तुम, जिसने सारा जीवन
साथकर्ता से बिताया था
कभी किसी के आगे
सर न झुकाया था
जिस शान से जी थी
उसी शान से दुनिया छोड़ गयी थी
'क्या तुम सुन रही हो माँ' कविता में कवियत्री ने स्पष्ट बयान दिया है की आज काव्य लेखन में जो मुकाम मिला है उसका कारण माँ तुम हो। और इस काव्य लेखन के सफ़र में निरन्तरता रहे इसकी प्रेरणा भी माँ ही दे रही है
विचारों का जो कारवाँ
तुम मेरे जहन में छोड़ गयी
वादा है तुमसे
यूँ ही बढ़ते रहने दूंगी
× × × × × × × ×
तुम्हारी झलक देख
सरल शब्दों की अभिव्यक्ति को
निर्मल सरिता सा
यूँ ही बहने दूंगी ।
'एक दुआ' कविता के अन्तर्गत जवान होती बालिका के व्यवहार का वर्णन पूरी ईमानदारी से किया है और कौमार्यता के उम्र में दिन रात आईने में अपने को निहारती है। उसे अपना रूप सोने- चांदी सा दीखता है और खुद ही अपने सुंदरता का गुमान करती है। बेखबर रहना, सपनों की दुनिया में खोना किशोरावस्था की पहचान है। किन्तु नवयौवना की यह चंचलता, उमंगें, और सपनों पर नियंत्रण भी चाहती है ।
'पर वह मासूम नहीं जानती
कितनी नादान है वह
डोर किसी की हाथों में थामे बिना
पतंग उड़ नहीं सकती'
जिंदगी की थकान को दूर करने के लिए चंचल पतंग सा मन चाहिए। जहाँ कवियत्री सपनों के आसमान पर सतरंगी उड़ान भरना चाहती है। नभ् का विस्तार छू लेना चाहती है। पर्वत, पठार, अट्टालिकाएँ सब बाँधाओं को अनदेखी कर आगे बढ़ना चाहती है । और इस। क्रम में हकीकत से भी नज़रें नहीं चुराती इसलिए तो निसंकोच कहती है ।
'जिंदगी के आईने पर
सच के धरातल पर
टिके कदम ही
देते है जिंदगी के मायने'
बेशक इंसान की जिंदगी कम है मगर अपने ख़्वाबों को पूरा करने के लिए इच्छाशक्ति होनी चाहिए और हमें इस हेतु प्रयास भी करना चाहिए। कवियत्री ने निम्न पंक्तियों से सकारात्मक सन्देश देते हुए जीवन के प्रति जीवटता दिखाई है ।
'अंजाम की फ़िक्र में
प्रयास तो नहीं छोड़ा जाता
मौत के बढ़ते कदमों की आहाट से डरकर
जीने की राह से
मुँह मोड़ा नहीं जाता
जब तक सांस
तब तक आस'
उर्दू शायरी का असर भी काव्य संग्रह में कई स्थानों पर दिखाई देता है जो निश्चित ही पाठक को वाह- वाह, बहुत खूब कहे बिना नहीं छोड़ता
'एक ख़्वाब बेनूर आँख के लिए
एक आह खामोश लब के लिए
एक पैबंद चाक जिगर सीने के लिए
काफी है इतने सामान मेरे जीने के लिए
अहसास मनुष्य के लिए आवश्यक है जो उसको दूसरे जीवों से अलग करती है। दरअसल अहसास मानवता का पर्याय है। अहसास बिना मानवीय जीवन की कल्पना करना बेमानी होगी। इसलिए कितना सुन्दर सत्य कहती है
'अहसास कभी मरते नहीं
अहसास जिन्दा है तो जिंदगी है'
बाल श्रम की समस्या पर दो कविताएं है 'क्या शहर, क्या गाँव' तथा 'बाल श्रमिक'। पहली कविता में लाचार बालिका के माध्यम से बालश्रम का कड़वा- यथार्थ दिखाया है। स्कूल न जाने की विवशता तथा भाई -माँ का शोषण का कारखानों में हो रहा है। इस कविता का अंत बड़ा मार्मिक बन पड़ा है
'ममता के दो बोल को तरसता जीवन मेरा
मेरे जीवन का नाम अभाव
मेरे लिए क्या शहर, क्या गाँव
जीवन तपती दोपहरी, नहीं ममता की छाँव
बाल श्रम की पीड़ा कचोटती ही नहीं अपितु कवियत्री का ज़मीर इन कोमल बच्चों को स्कूल भेजने के लिए भी लालायित है
'पढ़ने की उम्र में श्रमिक न बन
कंधे पर बस्ता उठाये
शान से पाठशाला जाए'
जीने की जिजीविषा श्रमिक के पास ही बची है। न उसके पास ख्वाब है, अरमान है। बस किसी तरह जीवन संघर्ष में अपने को जिन्दा रखना है। बाल श्रमिक इस मायने में बेजोड़ कविता बन पड़ी है। जहाँ श्रम करने वाला बालक बोझा नहीं उठाता बल्कि मृत आकांक्षाओं की अर्थी उठाता है
'अधनंगे बदन पर लू के थपेड़े सहते
तपती, सुलगती दोपहरी में
सर पे उठाये ईटों से भरी तगारी
सिर्फ तगारी का बोझ नहीं
मृत आकांक्षाओं की अर्थी
सर पर उठाये
नारी के प्रति हैवानियत का खेल दरिन्दों द्वारा देश भर में खेल जा रहा है उसकी भी व्यापक चिंता नज़र आती है। गाँव- शहर में शालीनता- मर्यादा की धज्जियां उड़ रही है मानो औरत होना गुनाह है। इसलिए तो समाज को चेता रही है
'सुप्त समाज तुम फिर से जाग जाओ
चेतो और चेताओ,
सावधान रखो निगाहें तुम्हारी
बनो मर्यादा के प्रहरी
फिर न उभरने पाये कोई दिल्ली
धौलपुर, नसीराबाद, निठारी
सबकुछ पा लेने से जीवन में नीरसता आ जायेगी। व्यक्ति लापरवाह हो जाएगा। संभव है श्रम न करे। जिंदगी में अधूरापन भी जायज है जो कर्मक्षेत्र में निरंतर मानव को प्रयासरत रखता है
'पूर्णता बना देती है
संतुष्ट और बेखबर
× × × × ×
मुझे थोड़े से ही
अधूरेपन में ही जीने दे
घूंट- घूंट जिंदगी पीने दे
सतत प्रयासशील
जिंदगी जीने दे
वर्तमान दौर का इंसान अजनबीपन लिए हुए है । अपने संग- साथी से कटा- कटा है, डरा- डरा है और अविश्वास से भरा हुआ है। तभी तो कवियत्री गैरो से दुःख साँझा करने की हीदायत देती है और कहती है
तुम वह ईंट बन कर देखो
जो दिवार में नहीं
पुल में लगाईं जायेगी
जीने की रीत तुम्हें
खुद ब खुद आ जायेगी'
आज नौजवान पीढ़ी और बुजुर्गों के बीच एक दिवार खींची पड़ी है। जहाँ नई पीढ़ी के उच्छश्रृंखल युवा अनुभव- विवेक- ज्ञान से लबरेज वृद्ध का मखोल उड़ाते है, उन्हें फासिल्स कहते है। क्योंकि उनमे कोई क्रिया- प्रतिक्रिया नहीं होती, ये अपने को ज़माने के अनुसार नहीं बदलते है तथा संस्कारों की वेदी पर नौजवानों की इच्छाओं की बलि चढ़ाते है।और यह बात कवियत्री को नागवार गुजरती है जिसका पुरजोर विरोध निम्न पंक्तियों के माध्यम से किया है
नयी पीढ़ी भले ही इन्हें नाम दे
सड़ी- गली मान्यताओं के बोझ तले दबे फासिल्स का
लेकिन यही फासिल्स है सबूत इस सच का
कि इन्ही से मानवता जीवित है
× × × × × × ×
जिनका अनुकरण कर
सभ्यता के कगार पर खड़ी
आधुनिक पीढ़ी पा सकती है
संस्कारों के भण्डार
आज इंसान इस धरा पे प्रेम विहीन हो गया है, इंसान ही इंसान का दुश्मन बन गया है। मानवता तो जैसे एक भूली बिसरी बात बनकर रह गयी है। खौफ रातों में सोने नही देता, आशियाना जला दिया जाता है, स्त्रियों की अस्मत लूट ली जाती है और यह सब मंजर अमूनन दंगों में देखने को मिलता है। तब आदमियत के खून के निशान भी नहीं बता सकते की मृत देह हिन्दू है या मुसलमां
'धरा पर बिखरे
खून के निशान
नहीं बता सकता
उनमे कौन है
राम और रहीम'
सपनों के सहारे जी लेना कितना हसीन लगता है कवियत्री को। हसीं सपने जो उदास लबो पर हंसी देते है, बेनूर आँखों में नूर जगाते है, मासूम सी जिंदगी में संगीतमय साज बजाते है। वाकई कल्पना के पंख पसारे जिंदगी को जी लेना चाहती है। सपनों के पूर्ण विराम के खिलाफ है
'जिस पल नेरे सपनों पर
लग जाएगा पूर्ण विराम
मेरे जिंदगी के चरखे को भी
मिल जाएगा अनन्त विश्राम'
'होने से न होने तक' काव्य संग्रह अपने ने जिंदगी के विभिन्न पहलुओं को समेटे हुए है। जहाँ चाहत, याद, अहसास, सुख- दुःख, प्रश्न, दुआ, सपने, प्रेम, रिश्ते, इंद्रधनुष इत्यादि सभी कुछ है। जो अपने वाजिब जवाबो के साथ सवाल करते है
'होने से न होने तक का अंतराल
गहरे समेटे है अपरिमित सवाल'
सारांश कह सकते है कि संग्रह की कविताओं में लय, रवानी और गेयता है। भाषा सहज और सरल है ।भयंकर बुनावट के जाल से मुक्त है। बौद्धिक प्रतीक, शिल्प और बिम्ब से कोसो दूर है। इस कारण कविता के मर्मज्ञ विद्वान काव्य संग्रह में अनगढ़ता का आरोप लगा सकते है। बेशक कविता पढ़कर पाठक स्वतः ही भावों के उपवन में गमन करने लगता है। हाँ एक बात कवियत्री रजनी छाबड़ा ने यथार्थ के धरातल पर उतरने की भरसक असफल कोशिश की है तथा हद से ज्यादा आदर्शवाद परोस दिया है। काव्य में भावों को उकेरने हेतु बिम्ब को सशक्त बनाने के लिए कुछ शब्दों के प्रति ज्यादा मोह दिखाया है। जैसे इंद्रधनुष, वीराना, पतंग, पंख,शान आदि। इसके बावजूद भी कवियत्री का यह पहला काव्य संग्रह 'होने से न होने तक' आज के दौर में अपने उदात्त आदर्श भावों की छाप छोड़ने के लिए बेकरार है ।
समीक्षक  :सूरज सिंह सार्की

Monday, 6 June 2016

जैसे जिनके धनुष :समीक्षक- वंदना गुप्ता

पिछले हिंदी दिवस पर ‪#‎mayamrigमायामृग‬ जी ने सभी को एक कोना पुस्तकों का लगाने को कहा जो एक नेक उद्देश्य था ताकि पुस्तकों को पाठकों का प्यार मिल सके और इसमें इजाफा करने के लिए तथा पुस्तकें पढने को प्रेरित करने हेतु उन्होंने उन सभी को पुस्तकें और सर्टिफिकेट भेजे जिन्होंने वो कोना दर्शाया . उसी के तहत मुझे भी उनके द्वारा भेजी पुस्तकें प्राप्त हुईं जो किसी बहुमूल्य निधि से कम नहीं . उन्ही पुस्तकों में '‪#‎नवनीतपाण्डेय‬ ' जी का कविता संग्रह 'जैसे जिनके धनुष' मिला . सबसे पहले वो ही पढ़ा और पढ़कर मंत्रमुग्ध हो गयी क्योंकि ये काबिलियत कम ही लोगों में होती है कि कम शब्दों में मारक बात कह दें .इसी तरह का संग्रह ‪#‎rajeshutsahiराजेशउत्साही‬ जी का था 'वह जो शेष है ' .तभी कहा कम ही लोग होते हैं जो ऐसा कर पाते हैं . पढने के बाद लगा इस पर तो एक छोटी सी प्रतिक्रिया उसी अंदाज़ में जरूरी है जिस अंदाज़ में कवि ने कम शब्दों में बड़ी बातें कही है तो उसी पर है मेरी ये प्रतिक्रिया :
जैसे जिनके धनुष मारक कविताओं का दस्तावेज . पहली ही कविता 'घर' न केवल चमत्कृत करती है बल्कि आश्वस्त भी कि कवि की दूरदृष्टि से कुछ नहीं बचा . दीखन में छोटे लगे घाव करे गंभीर वाली कवितायें अपने आप में एक विस्तृत वितान लिए हैं . जहाँ शब्दों का बेहिसाब खर्च नहीं बल्कि सदुपयोग हुआ है . कैसे कम शब्दों में गहरी बात कही जा सकती है ये जानने के लिए पाठक को इस संग्रह को पढना ही चाहिए . आपका कवि साहसी ही नहीं दुस्साहसी है जिसका आजकल अभाव है लेकिन इतनी हिम्मत रखना ही कवि को अन्यों से अलग करता है . प्रकृति को माध्यम बनाए चाहे इंसान को कवि की सोच आईने की तरह साफ़ है , निडर है , और शायद यही है कवि का सच्चा कवित्व . किस कविता की तारीफ़ की जाए और किसे छोड़ा जाए पाठक मन निर्णय नहीं कर पायेगा क्योंकि हर कविता चंद शब्दों में इतनी गहरी मार करती है कि बचना नामुमकिन है , इसलिए किसी एक कविता पर विचार रखना अन्य कविताओं के साथ अन्याय होगा . इसका स्वाद तो कोई पाठक मन पढ़कर ही जान सकता है . आप बधाई के पात्र हैं और उम्मीद करती हूँ आपकी आगे भी ऐसी ही कवितायेँ पढने को मिलती रहेंगी .
अंत में आभारी हूँ माया मृग जी की जो एक लाजवाब कविता संग्रह उपलब्ध करवा मेरा मान बढाया .

जो दिल की तमन्ना है : मुकेष दुबे


यूँ तो शीर्षक ही कह रहा है कि कुछ दिल ने कहा है, परतु दिल हमेषा कुछ कहता ही रहता है। हर धड़कन एक ख्वाहिष होती है। होना भी चाहिये, न हो जो आरजू तो कितनी बेमानी होगी ज़िन्दगी। मगर यही हसरतें जब इंसानियत की हदों के उस पार जाने लगती हैं तब शुरू होती है समस्या।
संजय अग्निहोत्री जी की कलम ने ऐसे ही हालातों और तमन्नाओं को बेहद खूबसूरती से सेजोया है इस किताब में जिसका जिक्र यहाँ हो रहा है।
दरअसल दूसरो से आगे बढ़ने की ललक को वर्तमान व्यस्तता ने स्वार्थ की हद तक बढ़ा दिया है। स्वार्थपरता ने दूसरो के प्रति तटस्थता बढ़ाई जिसको मानवता ने कुनैन को शक्कर में पागने की तरह नाम दे दिया है सज्जनता का।
बस इसी सज्जनता ने जिसे आम आदमी शराफत के रूप में देखता है, अपनी आड़ में नैतिक, समसजिक जिम्मेदारियों और मानवीय मूल्यों को जीवन से विलुप्त करना आरम्भ कर दिया।
यही ह्रास तमन्नाओं को विकृत करता गया। संजय जी ने न सिर्फ उन्हें महसूस किया अपितु बेहद सेजीदगी से कागज पर उकेर दिया अपनी कलम से।
कहानी का प्रार्दुभाव होता है एक महान वैज्ञानिक और अनुसंधानकर्ता डॅा. प्रषांत कोठारी को उनकी उत्कृष्ट शोध के लिये मिलने वाले नोबल पुरस्कार की खुषी से। यहीं पर दूसरा अहम पात्र जिसको हम सूत्रधार भी कह सकते हैं, अस्तित्व में आता है। से है डॉ. प्रषांत का अभिन्न मित्र मदन प्रताप सिह, पेषे से इंजीनियर मगर शोध में रुचि होने के कारण डॉ.प्रषांत के सहायक के रूप में काम कर रहा है। एक और रिष्ता है उसका प्रषांत से। वो प्रषांत की साली का पति भी है।
मदन अपने दोस्त की कामयाबी को इस मुकाम तक आने के घटनाक्रम के लषबैक में डूब जाता है और सम्पूर्ण घटनाक्रम किसी चलचित्र की तरह उसके मानसपटल पर गतिमान हो किसी पहाड़ी नदी सा प्रवाहित होने लगता है।
यहाँ पर गहरे रहस्य का बीज पाठक के जेहन में सुषुप्तावस्था से निकल अंकुरित हो जाता है और नवांकुर से प्रस्फुटित होती हर कोंपल रहस्य को गहराती जाती है। शनैः शनैः जुड़ते हर पात्र के साथ कथानक गतिमान रहता है और एक सीधी सी लगने वाली बात असंख्य रहस्य के पर्दों में लिपट कर रहस्य, रोमांच व जिज्ञासा के किसी व्यूह में बदलने लगती है।
अद्भुत तिलिस्म बुना है लेखक ने जिसमें कहीं किसी जासूसी उपन्यास का रहस्य है तो कहीं सामाजिक रिष्तों की अकुलाहट है। दाम्पत्य जीवन की विषमताएँ भी हैं और मानवीय स्वभाव की कमजोरियाँ भी हैं। स्वार्थ है तो त्याग की अनुपम बानगी है।
एक और चरित्र की ऊँचाईयों का हिमालयीन षिखर है तो दूसरी ओर नैतिक पतन का रसातल है। मित्रता की पराकाष्ठा है जिसमें एक मित्र की उन्नति के लिये दूसरा मार्ग के हर शूल को चुनने की चाह में अपना दामन तार तार करने से नहीं चूक रहा। इस प्रयास में उसने जो किया उका एक अंष उसकी आत्मा को झिंझोड़ कर लहूलुहान कर रहा है। अनुत्तरित प्रष्न उछाल रहा है जिसका जबाव उस स्थान पर देना संभव नहीं है।
ये कथानक का वह हिस्सा है जहाँ प्रषांत की पत्नि प्रभा का चरित्र सेदेह में लिपटा नजर आ रहा है। अनेको बातें पाठक के मस्तिष्क में चल रही हैं।
प्रभा, कुमुद व मदन के रिष्ते की सच्चाई क्या है ?
क्या प्रभा वास्तव में पतिता है या कोई और ही रहस्य है ?
राजू और प्रभा की कैसी गुत्थी है ?
मदन की क्या विवषता उसे हालात के आगे घुटने टेकने को मजबूर कर रही है ?
हर सवाल का तथ्यात्मक व विष्लेषणात्मक जबाव आगे के पृष्ठों में मिलने वाला है, बस यही पेच पुस्तक से अलग नहीं होने देता पाठक को।
डॉ.कोठारी का शोध कार्य अनेकों रुकावटों के बावजूद सम्पादित हो रहा है क्योंकि मदन हर स्थान पर बेहद सजग व चौंकन्ना है।
यहाँ पर एक अहम पात्र की धमाकेदार प्रविष्टी की गई है जो वास्तव में एक खलपात्र होकर भी कथानक का महत्वपूर्ण अंग है। ये है एक लोभी वैज्ञानिक डॉ अधीर अब्भयंकर जो नाम के अनुरूप ही अपनी प्रसिद्धि के लिये अधीर रहता है। इसकी लालसायें ही तमन्नाओं का विकृत स्वरूप हैं जिनसे इस कथानक की जमीन तैयार हुई कही जा सकती है।
डॉ. अधीर की यष, प्रतिष्ठा और नाम की चाह उसका नैतिक पतन कर एक खतरनाक अपराधी बनाता जाती है आथ्र वह सभ्य समाज का प्रतिनिधि हर उस काम को अंजाम देने से नहीं चूकता जिसे समाज गलत कहता है और कानून में जिसके लिये सजा का प्रावधान है।
मुख्य कथानक के साथ ही यहाँ एक उप कथानक को बड़े ही सहज तरीके से पिरोया है संजय जी ने जिसने घटनाक्रम को और प्रभावी बना दिया है। प्रो. समर सिंह व उनकी पत्नी नीता सिंह के दाम्पत्य जीवन की कड़वाहट तथा समर सिंह की उच्चाकंठाओं की दुखद परिणिती का सुन्दरतम प्रस्तुतिकरण हुआ है। घटनाओं से उपजे रोमांच में डूबा पाठक पुनः प्रष्नों के हल ढूँढने में बैचेन रहता है।
नीता की हत्या की क्या वजह हो सकती है ?
कौन होगा नीता का हत्यारा ?
एक प्रेम विवाह क्यों असफल हो गया ?
अनेकों प्रष्न खड़े हो जाते हैं। अपराध और विषेषकर हत्या का शाब्दिक निरूपण कभी आसान नहीं होता। जिस तरह से लेखक ने उसे अंजाम दिया है भ्रम होने लगता है कि लेखक तकनीकी क्षेत्र से है अथवा मनोविकार व अपराध विज्ञान का विषेषज्ञ !
घटनाओं की प्रामाणिकता व सटीक विष्लेषण दाँतों तले उँगली दबाने पर विवष कर देता है।
हर घटना की तथ्यपरक विवेचना, पुलिस व खुफिया विभाग की कार्यषैली, अपराधियों की प्रवृत्ति सब ऐसे समाहित किये गये हैं कि मूल कथानक का प्रवाह लेषमात्र भी प्रभावित नहीं होता बल्कि उसे और अधिक पुष्ट करता जाता है।
एक शानदार संदेष लिये कथा अपनी पूर्णता पर पहुँचती है कि बुराई कभी नहीं जीतती और सत्य कभी पराजित नहीं होता।
हर शंका व पूर्व में उठे प्रष्नों के तार्किक समाधान के साथ कथा का सुखांत मन में हर्ष की तरंगे जगा देता है।
अपनी बात कहने में संजय जी द्वारा उद्घृत परम आदरणीय दिनकर जी की निम्न पंक्तियाँ सजीव हो उठती हैं -
‘‘समर शेष है,  नहीं पाप का भागी केवल  व्याध,
 जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।’’
कुल मिलाकर एक सफल व सार्थक लेखन जिसमें पाठक को वांछित प्रत्येक तत्व मौजूद है। प्रवाह एवं भाषा-षैली इतनी प्रभावी कि संप्रेषण में कोई रुकावट नहीं। हर तरह से बधाई के हकदार हैं संजय अग्निहोत्री ‘क्षितिज’ जी।
पुस्तक के सुन्दर आवरण, त्रुटि रहित टंकण व मुद्रण तथा स्तरीय सामग्री के लिये अंजुमन प्रकाषन, इलाहाबाद भी बधाई के पात्र हैं।
अंत में एक बार पुनः हार्दिक बधाई के साथ अनन्त शुभकामनाएँ भाई संजय अग्निहोत्री जी को कि उनकी सुलेखनी से अनवरत सृजन होता रहे।
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पुस्तक का नाम : जो दिल की तमन्ना है
लेखक        : संजय अग्निहोत्री ‘क्षितिज’
प्रकाषक      : अंजुमन प्रकाषन, इलाहाबाद
प्रकाषन वर्ष   : 2016
पृष्ठ सेख्या    : 144
मूल्य         : रुपये 130/-
समीक्षक      : मुकेष दुबे
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स्त्री विमर्श के आधुनिक बोध -संजय वर्मा "दृष्टि

लेखिका ज्योति जैन ने स्त्री विमर्श के आधुनिक बोध और  समकालीन यथार्थ को सेतु संग्रह में बेहतर तरीके से लिखा है । और यही बात को लेखिका ने सेतु के माध्यम से समझाई भी है-साहित्य रचनेवाला किसी भी क्षेत्र या भाषा  का हो, उसका साहित्य उसके व् पाठकों के बीच सेतु का काम करता है ।"कहानियाँ कुल मिलकर 21  है जो विभिन्न विषयों के जरिये  वैचारिक ऊर्जा समाहित करती है और यही सेतु की खासियत है । 
"सेतु" कहानी में रिश्तों और भाषा को जोड़नेमें सेतु का महत्व बताया   -"सेतु चाहे बड़ा हो या छोटा ,जोड़ने का ही काम करता है । किनारे दूर रहकर भी साथ रहते है ।"छोड़ी हुई" में विडंबना ,व्यथा के संग " छोड़ी हुई "  बेइज्जती भरे तानो  को झेलती स्त्री में सहनशीलता की और इशारा किया है । शायद , छोड़ी हुई जैसे शब्द भरे बाणों पर अंकुश लगाना भी कहानी का   मूल उदेश्य  रहा हो। " इफ यू लव समबडी "  कहानी  में प्रेम की अभिव्यक्ति को कुछ यू निखारा  है -" प्रेम कुर्बानी नहीं माँगता ,हमेशा जीना  ही सिखाता है । प्रेम जिंदगी का पर्याय है "मानव जीवन ईश्वर का दिया सबसे खूबसूरत उपहार,इसे यूँ नष्ट कर उसका अपमान न करों । जीवन को महसूस करो ,उसे भरपूर जियो और जिन्दादिली से जियो "  "पारस" कहानी में शिक्षा की अभिलाषा व् देह  व्यापार से मुक्ति की बात रखी -' क्या यहाँ कोई स्कूल नहीं है ?" वो बोले जा रही थी ,"क्या तुम्हे नहीं लगता कि इस अँधेरे माहोल में शिक्षा का उजाला होना जरुरी है ।""स्कूल तो कब्बी गई नहीं मैडम । टीवी ,पिक्चर में ही देखा है बस । "इस धन्धे को छोड़ना चाहती है ,छोड़ भी रही है । चार अक्षर बाचना चाहती है । हम धीरे -धीरे ही सही पर बढ़ रहे है । देह व्यापार के उन्मूलन  व् शिक्षा प्राप्ति कहानी संदेश परक रही । ज्योति जैन की कल्पनाशीलता ,शब्दों की गहराई से जीवन के कटु सत्यो का चित्रण अन्य कहानियो में  बखूबी किया और सम्मानजनक जीने की प्रेरणा स्त्री पक्ष को दी । " सेतु" संग्रह कहानी जगत में अपनी पहचान अवश्य स्थापित  करेगा व साहित्य उपासकों,फिल्म जगत , टी वी  सीरियलों में विषय वस्तु की मांग कहानी  के शौकीनों के लिए मददगार साबित होगा । ज्योति जैन को सेतु कहानी संग्रह के लिए  हार्दिक बधाई । 

कहानी संग्रह -सेतु 
लेखिका -ज्योति जैन 
मूल्य 240 /-
प्रकाशक -दिशा प्रकाशन 158/16 त्रिनगर दिल्ली 110035 

समीक्षक -संजय वर्मा "दृष्टि "
125 ,शहीद भगत सिंग मार्ग मनावर जिला -धार (म प्र )
9893070756

मेरा दागिस्तान- रसूल हमजातो : समीक्षक- महेश पुनेठा

कल सुबह वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह ने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा- यदि किसी को लोक को उसके सही अर्थ में जानना है तो रसूल हमजातोव की मेरा दागिस्तान पुस्तक को तब तक पढ़ना चाहिए, जब तक उसका एक एक सूत्र समझ में नहीं आ जाए ।लोक और आधुनिक बोध के आपसी रिश्ते को जानने के लिए इससे बेहतरीन कृति शायद ही कोई और हो। उनकी पोस्ट पढ़ते ही विचार आया कि क्यों न आज सायंकालीन भ्रमण के दौरान रसूल हमजातोव की कविताओं का पाठ किया जाय। मेरे पास ‘मेरा दागिस्तान’ दोनों खंडों में उपलब्ध है। बहुत पहले युवा कवि केशव तिवारी ने मेरे प्रति अनुज भाव से संपृक्त होकर मुझे बांदा से भेजी थी। उनकी यह सर्वप्रिय पुस्तक रही है। हमारे परिचय के शुरूआती दिनों से ही जब भी लोक की बात आती वे अपनी बातचीत में रसूल हमजातोव का जिक्र अवश्य किया करते थे। पढने का सुझाव देते. एक दिन उन्होंने डाक से किताबें ही भेज दी. ऐसा स्नेह;कुछ कहना उसको कम करना होगा. यह कहने में मुझे कोई हिचकिचाहट नहीं है कि इस किताब से ही नहीं बल्कि रसूल हमजातोव के नाम से भी मेरा पहला परिचय केशव जी ने ही कराया।

 उसके बाद कविवर विजेंद्र और आलोचक जीवन सिंह के ‘कृति ओर’ में लिख लेखों में अक्सर रसूल और दागिस्तान के बारे में पढ़ता रहा। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद में रसूल हमजातोव का मुरीद हो गया। मुझे लगता है जैसे यह किताब हमारे पहाड़ पर ही लिखी गई हो। मुझे उनके पहाड़ और अपने पहाड़ में बहुत अधिक समानता दिखाई देती है। अपनी धरती से प्यार करने का मतलब क्या होता है और अपनी धरती से प्रेम करते हुए सारी दुनिया को कैसे प्रेम किया जा सकता है, मैंने इस पुस्तक को पढ़ने के बाद ही अच्छी तरह जाना- समझा। मुझे रसूल का यह कथन जैसे कंठस्थ हो गया कि जो अपनी मां से प्रेम नहीं कर सकता वह दूसरे की मां का सम्मान भी नहीं कर सकता है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता ही यह है कि वह अपनी मातृभूमि को प्रेम करते हुए सारी पृथ्वी से प्रेम करते हैं। वह विविधता का सम्मान करते हैं। उनका यह कथन इस बात का प्रमाण है-‘‘क्या यह सच नहीं है कि फूल जितने भी विविधतापूर्ण होंगे ,उनका उतना ही ज्यादा खूबसूरत गुलदस्ता बनेगा । आकाश में जितने ज्यादा तारे होंगे,वह उतना ही ज्यादा जगमगायेगा। इंद्रधनुष इसीलिए तो सुुंदर लगता है कि पृथ्वी के सभी रंगों को अपने में समेट लेता है।’’ कितनी बड़ी बात है। आज हमें अपने देश के संदर्भ में इसी विचार की सबसे अधिक आवश्यकता है। 

‘मेरा दागिस्तान’ में मातृभाषा से प्रेम, जीवन का अनुभव,लोगों के चित्र और चरित्र, गीतों की धुनें, इतिहास की समझ,न्याय भावना ,प्यार ,मातृभूमि का प्राकृतिक सौंदर्य ,अपने पिता की स्मृति ,अपनी जनता का अतीत और भविष्य अद्भुत है। इसका एक-एक शब्द गहरी रागात्मकता से भर देता है। कविता और कवि कर्म को लेकर भी इस पुस्तक में बहुत कुछ कहा गया है। वह लिखते हैं कि साहित्य के स्रोत हैं-मातृभूमि ,अपनी जनता,मातृभाषा। मगर हर सच्चे लेखक की चेतना अपनी जाति की सीमाओं से कहीं अधिक विस्तृत होती है। सारी मानवजाति ,समूची दुनिया की समस्यायें उसे बेचैन करती हैं,उसके दिल-दिमाग में जगह पाती हैं। इस पुस्तक को पढ़ते हुए पता चलता है कि स्थानीयता कैसे वैश्विकता को मजबूत करती है। अपनी मातृभूमि का होते हुए भी सारे विश्व का कैसे हुआ जा सकता है? इसका उत्तर हमें रसूल हमजातोव के लेखन से मिलता है। वह कितनी बड़ी बात कहते हैं जिससे हमें सीखने की जरूरत है-‘‘मैं अवार कवि हूं। मगर अपने दिल में केवल अवारिस्तान ,केवल दागिस्तान ,केवल सारे देश के लिए ही नहीं ,बल्कि सारी पृथ्वी के लिए नागरिक के उत्तरदायित्व को अनुभव करता हंू। 

यह बींसवी सदी है। इसमें सिर्फ ऐसे ही जिया जा सकता है।’’ मैं तो कहुंगा कि इक्कीसवीं सदी में जीने का यह तरीका और अधिक जरूरी हो गया है। साथ ही वह यह भी याद दिलाते हैं-‘‘सागर तक पहुुंच जानेवाली ,अपने सामने असीम नीला विस्तार देखने और उस महान नीलिमा में घुलमिल जाने वाली नदिया को ऊंचे पहाड़ों में उस चश्मे को नहीं भूल जाना चाहिए ,जिससे धरती पर उसका पथ आरम्भ हुआ । उस पथरीले ,संकरे ,उबड़-खाबड़ और टेढ़े-मेढ़े रास्ते को भी नहीं भूल जाना चाहिए ,जो उसे तय करना पड़ा।’’ उनकी स्पष्ट मान्यता है कि निश्चय ही हम कवि सारी दुनिया के लिए उत्तरदायी हैं ,मगर जिसे अपने पर्वतों से प्यार नहीं ,वह सारी पृथ्वी का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। रसूल अपनी धरती, अपने लोगों से कटे साहित्यकारों को एक तरह से सचेत करते हुए कहते हैं कि साहित्य जब अपने बाप-दादों की खुराक छोड़कर पराये,बढ़िया विदेशी भोजनों के फेर में पड़ जाता है ,जब वह अपनी जनता की परम्पराओं और रीति-रिवाजों ,भाषा और मिजाज से नाता तोड़ लेता है,उसके साथ विश्वासघात करता है,तो वह बीमार हो जाता है,उसके दम निकलने लगता है और कोई भी दवाई उसे बचा नहीं पाती। वह कविता को बैठे-ठाले और समय व्यतीत करने वालों का शौक नहीं मानते हैं। कवि-कर्म कोई ऐसा कर्म नहीं है जिसे हम बंद कमरों में बैठकर पूरा कर सकते हों, उसके लिए कष्ट उठाने की जरूरत होती है।

 वह अपनी पुस्तक में एक जगह लिखते हैं-‘‘अगर कविता रचने के लिए कवि को खुद कष्ट उठाना पड़ा है तो हर शब्द और हर कामा भी उसे प्यारा होगा। अगर उसने राह चलते पराये विचार इकट्ठे किए हैं तो उनसे बढ़िया कविता नहीं बनेगी।’’ अबूझ और पहेलीनुमा कविता के बारे में उनका स्पष्ट मानना है-कुछ कविताओं को पढ़ते हुए भी यह समझ में नहीं आता कि उनमें कवित्व अधिक है या कोरी शब्द भरमार। काहिल कवि ही जो मेहनत करने से घबराते हैं ,ऐसी कविताएं रचते हैं। इस तरह जीवन,प्रकृति,कविता आदि तमाम विषयों के बारे में तमाम बातें ‘मेरा दागिस्तान’ में भरी पड़ी हैं। इसे पढ़ते हुए पाठक उसी दुनिया में महसूस करता है। 


रसूल की कविताएं इतनी सरस और जीवंत हैं कि हमारी जबान में चढ़ जाती हैं। कल जब हम उनकी कविताओं का पाठ और चर्चा कर रहे थे, हमारे साथी राजेश पंत उनकी बहुत सारी कविताएं सुना रहे थे। कोई कविता यूं ही किसी को कंठस्थ नहीं हो जाती, क्यों हो जाती हैं, यह तो उनकी कविताओं को पढ़ते हुए ही अच्छी तरह से समझा जा सकता है।
कल पिछले पांच-छः दिनों के बाद गिरीश भाई फिर हमारे साथ थे. बारिश के चलते हम शहर के बीचोबीच स्थित पार्क में ही बैठ गये। जहां हम रसूल हमजातोव की कविताओं के लोक में खोए हुए थे, वहीं दस-बारह साल के बच्चों से लेकर बीस-बाईस साल के युवाओं के समूह थे जो बीड़ी-सिगरेट और चरस के लोक में अपना आनंद तलाश रहे थे। जिस अंदाज में ये समूह वहां आकर सिगरेट-बीड़ी में चरस भर, सुट्टा लगा निकल रहे थे, हम उन्हें कनखियों से निरखने और अफसोस व्यक्त करने के अलावा कुछ नहीं कर पाए। जैसे-जैसे शाम ढलने को आ रही थी पार्क में बैठ, धुंए के छल्ले बना उड़ाने वाले समूहों की संख्या बढ़ती जा रही थी। शायद इसीलिए पार्क पर अंधेरा होने से पहले ताला जड़ दिया जाता हो, लेकिन यह ताला तो हम जैसों के लिए था, उन्होंने तो अपने लिए रास्ता तलाश लिया था। उन्हीं के दिखाए रास्ते हम भी रेलिंग फांदकर बाहर निकल पाए। हमें तो इस नई पीढ़ी ने रास्ता दिखा दिया लेकिन खुद‘रास्ता’ भटक चुकी है। काश! हम भी इन्हें कोई रास्ता दिखा पाते। कुछ सोचना होगा इस बारे में।
समीक्षक : महेश पुनेठा